ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 63/ मन्त्र 4
दि॒वो रु॒क्म उ॑रु॒चक्षा॒ उदे॑ति दू॒रेअ॑र्थस्त॒रणि॒र्भ्राज॑मानः । नू॒नं जना॒: सूर्ये॑ण॒ प्रसू॑ता॒ अय॒न्नर्था॑नि कृ॒णव॒न्नपां॑सि ॥
स्वर सहित पद पाठदि॒वः । रु॒क्मः । उ॒रु॒ऽचक्षाः॑ । उत् । ए॒ति॒ । दू॒रेऽअ॑र्थः । त॒रणिः॑ । भ्राज॑मानः । नू॒नम् । जनाः॑ । सूर्ये॑ण । प्रऽसू॑ताः । अय॑न् । अर्था॑नि । कृ॒णव॑न् । अपां॑सि ॥
स्वर रहित मन्त्र
दिवो रुक्म उरुचक्षा उदेति दूरेअर्थस्तरणिर्भ्राजमानः । नूनं जना: सूर्येण प्रसूता अयन्नर्थानि कृणवन्नपांसि ॥
स्वर रहित पद पाठदिवः । रुक्मः । उरुऽचक्षाः । उत् । एति । दूरेऽअर्थः । तरणिः । भ्राजमानः । नूनम् । जनाः । सूर्येण । प्रऽसूताः । अयन् । अर्थानि । कृणवन् । अपांसि ॥ ७.६३.४
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 63; मन्त्र » 4
अष्टक » 5; अध्याय » 5; वर्ग » 5; मन्त्र » 4
अष्टक » 5; अध्याय » 5; वर्ग » 5; मन्त्र » 4
विषय - सर्वप्रेरक सूर्यवत् ज्ञानी से प्रेरित जनों की सदर्थ-प्राप्ति । (
भावार्थ -
सूर्य जिस प्रकार ( दिवः रुक्म ) विशाल आकाश में सुवर्ण के आभरण के समान देदीप्यमान ( उरु-चक्षाः ) बड़े २ विशाल आकाश और लोकों को प्रकाशित करता हुआ (तरणिः) आकाश पार करने वाला, (भ्राजमानः ) चमकता हुआ ( दूरे- अर्थ: ) दूर २ तक स्वयं प्रकाश फैलाता हुआ ( उदेति ) उदय होता है। और ( जनाः ) मनुष्य जन्तुगण ( सूर्येण प्रसूताः ) सूर्य द्वारा प्रेरित होकर ( अर्थानि अयन् ) प्राप्तव्य पदार्थों को प्राप्त करते और (अपांसि कृणवन् ) नाना कर्म करते हैं। उसी प्रकार ( तरणिः ) नौका के समान प्रजाजनों, जीवों को समस्त दुःखों से पार करने वाला, ( भ्राजमानः ) प्रकाशमान् तेजस्वी, ( दूरे- अर्थ: ) दूर २ तक जाने वाला, उत्साही दूर देश से भी धन को प्राप्त करने वाला, (उरुचक्षा ) विशाल चक्षु, बहुदर्शी पुरुष ( दिवः रुक्म ) कामनावान् प्रजा के बीच सुशोभित, उनको प्रिय लगने वाला होता है । और ( जनाः ) सब जन, ऐसे ( सूर्येण ) सूर्यवत् ज्ञान और तेज से युक्त पुरुष से ( प्रसूताः ) प्रेरित, उत्पादित, और शिक्षित होकर ( अर्थानि प्रयन् ) अपने प्राप्य पदार्थों को प्राप्त हों और ( अपांसि कृणवन् ) नाना कर्म करते हैं । ( २ ) परमात्मा सबको भवसागर से पार उतारने से 'तरणि ' ( दूरे-अर्थ: ) सर्वव्यापक, सर्वद्रष्टा है, उसी से ( प्रसूताः ) उत्पादित सब जन अपने अभिलाषित फल पाते और कर्म करते हैं ।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वसिष्ठ ऋषिः ॥ १ – ५ सूर्यः । ५, ६ मित्रावरुणौ देवते ॥ छन्दः—१, ६ विराट् त्रिष्टुप् । २, ३, ४, ५ निचृत्त्रिष्टुप् ॥ षडृचं सूक्तम् ॥
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