ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 63/ मन्त्र 3
वि॒भ्राज॑मान उ॒षसा॑मु॒पस्था॑द्रे॒भैरुदे॑त्यनुम॒द्यमा॑नः । ए॒ष मे॑ दे॒वः स॑वि॒ता च॑च्छन्द॒ यः स॑मा॒नं न प्र॑मि॒नाति॒ धाम॑ ॥
स्वर सहित पद पाठवि॒ऽभ्राज॑मानः । उ॒षसा॑म् । उ॒पऽस्था॑त् । रे॒भैः । उत् । ए॒ति॒ । अ॒नु॒ऽम॒द्यमा॑नः । ए॒षः । मे॒ । दे॒वः । स॒वि॒ता । च॒च्छ॒न्द॒ । यः । स॒मा॒नम् । न । प्र॒ऽमि॒नाति॑ । धाम॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
विभ्राजमान उषसामुपस्थाद्रेभैरुदेत्यनुमद्यमानः । एष मे देवः सविता चच्छन्द यः समानं न प्रमिनाति धाम ॥
स्वर रहित पद पाठविऽभ्राजमानः । उषसाम् । उपऽस्थात् । रेभैः । उत् । एति । अनुऽमद्यमानः । एषः । मे । देवः । सविता । चच्छन्द । यः । समानम् । न । प्रऽमिनाति । धाम ॥ ७.६३.३
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 63; मन्त्र » 3
अष्टक » 5; अध्याय » 5; वर्ग » 5; मन्त्र » 3
अष्टक » 5; अध्याय » 5; वर्ग » 5; मन्त्र » 3
विषय - यन्त्रचक्र में लगे अश्व या एंजिनवत् वा राशिचक्र के बीच स्थित सूर्यवत् विद्वान् का सर्वसंञ्चालन ।
भावार्थ -
जिस प्रकार ( देवः सविता ) प्रकाशमान् सूर्य, ( उषसाम् उपस्थात् ) उषाओं में से ( विभ्राजमानः ) विशेष रूप से चमकता हुआ, ( रेभैः ) शब्दकारी वायुओं, स्तुतिकर्त्ता जीवों से ( अनुमद्यमानः) वार २ स्तुति किया जाकर ( उदेति ) उदय को प्राप्त होता है वह (समानं धाम न प्रमिनाति) सबके प्रति प्राप्त होने वाले तेज को नष्ट नहीं करता, सबको समान रूप से प्रकाश देता है उसी प्रकार ( यः ) जो महापुरुष, (समानं धाम ) अपने एक समान, अनुरूप तेज, नाम स्थान, पद को ( न प्र-मिनाति ) नष्ट नहीं करता तो भी ( उषसाम् ) प्रभात वेलाओं के समान उत्तम अनुराग से युक्त प्रजाओं के बीच में ( रेभैः ) उत्तम विद्वानों द्वारा ( अनु-मद्यमानः ) प्रतिदिन स्तुति एवं उपदेश किया जाकर (उद् एति ) निरन्तर विद्या प्रकाश तथा बल दीप्ति से उदय को प्राप्त होता, उन्नति के पदपर गति करता है, ( एषः ) वह ( मे ) मेरा ( देवः ) ज्ञानदाता पुरुष वा ऐश्वर्यप्रद राजा ( सविता ) उत्पादक पितावत् ( चच्छन्द ) गृहवत् शरण दे । ( २ ) इसी प्रकार प्रकाशस्वरूप प्रभु सबसे स्तुत या उपदिष्ट होकर हमारे हृदय में उदित हो ।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वसिष्ठ ऋषिः ॥ १ – ५ सूर्यः । ५, ६ मित्रावरुणौ देवते ॥ छन्दः—१, ६ विराट् त्रिष्टुप् । २, ३, ४, ५ निचृत्त्रिष्टुप् ॥ षडृचं सूक्तम् ॥
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