ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 63/ मन्त्र 2
उद्वे॑ति प्रसवी॒ता जना॑नां म॒हान्के॒तुर॑र्ण॒वः सूर्य॑स्य । स॒मा॒नं च॒क्रं प॑र्या॒विवृ॑त्स॒न्यदे॑त॒शो वह॑ति धू॒र्षु यु॒क्तः ॥
स्वर सहित पद पाठउत् । ऊँ॒ इति॑ । ए॒ति॒ । प्र॒ऽस॒वी॒ता । जना॑नाम् । म॒हान् । के॒तुः । अ॒र्ण॒वः । सूर्य॑स्य । स॒मा॒नम् । च॒क्रम् । प॒रि॒ऽआ॒विवृ॑त्सन् । यत् । ए॒त॒शः । वह॑ति । धू॒र्षु । यु॒क्तः ॥
स्वर रहित मन्त्र
उद्वेति प्रसवीता जनानां महान्केतुरर्णवः सूर्यस्य । समानं चक्रं पर्याविवृत्सन्यदेतशो वहति धूर्षु युक्तः ॥
स्वर रहित पद पाठउत् । ऊँ इति । एति । प्रऽसवीता । जनानाम् । महान् । केतुः । अर्णवः । सूर्यस्य । समानम् । चक्रम् । परिऽआविवृत्सन् । यत् । एतशः । वहति । धूर्षु । युक्तः ॥ ७.६३.२
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 63; मन्त्र » 2
अष्टक » 5; अध्याय » 5; वर्ग » 5; मन्त्र » 2
अष्टक » 5; अध्याय » 5; वर्ग » 5; मन्त्र » 2
विषय - यन्त्रचक्र में लगे अश्व या एंजिनवत् वा राशिचक्र के बीच स्थित सूर्यवत् विद्वान् का सर्वसंञ्चालन ।
भावार्थ -
जिस प्रकार ( एतशः ) वेगवान् गतिप्रद अश्व वा यन्त्र धूर्षु युक्तः ) यन्त्रों के धुराओं में जुता या जुड़ा हुआ ( समानं च क्रम् ) सब यन्त्राङ्गों में समान रूप से गति देने वाले चक्र को (परि आववृत्सन् ) घुमाता है, और जिस प्रकार ( एतश: ) तेजोयुक्त, सूर्य ( धूर्षुयुक्तः सन् ) नाना ग्रहों के धारण करने वाले केन्द्रस्थलों में स्थित होकर ( समानं चक्रं परि आ ववृत्सन् ) सब ग्रहों के चक्र को एक समान नीति से अपने गिर्द घुमाता रहता है और जिस प्रकार ( जनानां महान् केतुः ) सब जन्तुओं का ज्ञापक, ( सूर्यस्य = सूर्यः स्यः ) वह सूर्य ( अर्णवः ) जल का देने वाला है ( जनानां प्रसवीता ) सबको प्रेरित करने वाला होकर ( उद् एति उ ) अवश्य नियम से उदय होता है उसी प्रकार ( एतशः ) ज्ञानी, शुक्लकर्मा पुरुष भी ( धूर्षु युक्तः ) कार्य-भारों को धारण करने के पदों पर नियुक्त होकर ( वहति ) कार्य-भार को उठावे और ( समानं चक्रं ) एक समान राजचक्र को भी ( परि आ विवृत्सन् ) यथार्थ रीति से चलावे । ( स्यः सूर्यः ) वह सूर्य के समान वा (अर्णवः ) समुद्र के समान तेजस्वी, गम्भीर और ( जनानां ) मनुष्यों के बीच में ( केतुः ) ध्वजा के समान ऊंचा, ( महान् ) गुणों में बड़ा और (केतुः) स्वयं ज्ञानी, अन्यों को जनाने वाला, वह ( प्रसवीता ) उत्तम मार्ग में चलाने हारा पुरुष ( उत् एति उ ) उत्तम पद को प्राप्त हो । उसी प्रकार नायक स्वप्रकाशक स्वरूप होने से 'एतश' सर्वप्रकाशक होने से 'सूर्य' है वह समस्त ब्रह्माण्ड-काल-चक्र को चलाता, सबका उत्पादक ज्ञानवान्, महान् है ।
टिप्पणी -
( सूर्यस्य ) सूर्यः। विभक्तिव्यत्यय इति सायणः। सूर्यः स्यः इति वा पदच्छेदः । उभयत्र विभक्तेर्लुक् आदेशः ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वसिष्ठ ऋषिः ॥ १ – ५ सूर्यः । ५, ६ मित्रावरुणौ देवते ॥ छन्दः—१, ६ विराट् त्रिष्टुप् । २, ३, ४, ५ निचृत्त्रिष्टुप् ॥ षडृचं सूक्तम् ॥
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