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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 63 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 63/ मन्त्र 2
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - सूर्यः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    उद्वे॑ति प्रसवी॒ता जना॑नां म॒हान्के॒तुर॑र्ण॒वः सूर्य॑स्य । स॒मा॒नं च॒क्रं प॑र्या॒विवृ॑त्स॒न्यदे॑त॒शो वह॑ति धू॒र्षु यु॒क्तः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उत् । ऊँ॒ इति॑ । ए॒ति॒ । प्र॒ऽस॒वी॒ता । जना॑नाम् । म॒हान् । के॒तुः । अ॒र्ण॒वः । सूर्य॑स्य । स॒मा॒नम् । च॒क्रम् । प॒रि॒ऽआ॒विवृ॑त्सन् । यत् । ए॒त॒शः । वह॑ति । धू॒र्षु । यु॒क्तः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उद्वेति प्रसवीता जनानां महान्केतुरर्णवः सूर्यस्य । समानं चक्रं पर्याविवृत्सन्यदेतशो वहति धूर्षु युक्तः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत् । ऊँ इति । एति । प्रऽसवीता । जनानाम् । महान् । केतुः । अर्णवः । सूर्यस्य । समानम् । चक्रम् । परिऽआविवृत्सन् । यत् । एतशः । वहति । धूर्षु । युक्तः ॥ ७.६३.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 63; मन्त्र » 2
    अष्टक » 5; अध्याय » 5; वर्ग » 5; मन्त्र » 2
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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    स परमात्मा (जनानाम्) सर्वप्राणिनां (प्रसविता) जनयिता (महान्) ब्रह्मरूपः (केतुः) ध्वजमिव सर्वोपरि विराजमानः, (अर्णवः) अन्तरिक्षस्य (सूर्यस्य) सूर्यमण्डलस्य च यत् (समानम्) एकं (चक्रं) मण्डलाकारं (पर्याविवृत् सन्) चालयितुमिच्छन् सन् (धूर्षु) एषां मध्यभागे (युक्तः) संलग्ना (यत्) या (एतशः) दिव्यशक्तिः (वहति) अनन्तब्रह्माण्डान् सञ्चालयति, तस्याः स्वामी सर्वशक्तिमान् परमात्मदेवः (उद्वेति) संयमिनां दमिनां जनानामन्तःकरणेषु भक्तियोगेन आविर्भवतीत्यर्थः ॥२॥

    हिन्दी (1)

    पदार्थ

    वह परमात्मा (जनानाम्) सब मनुष्यों का (प्रसविता) उत्पादक (महान्) सबसे बड़ा (केतुः) सर्वोपरि विराजमान (अन्तरिक्षस्य) अन्तरिक्ष तथा (सूर्यस्य) सूर्य्य के (समानम्, चक्रं, परि, आविवृत्सन्) समान चक्र को एक परिधि में रखनेवाला है (धूर्षु) इनके धुराओं में (युक्तः) युक्त हुई (यत) जो (एतशः) दिव्यशक्ति (वहति) अनन्त ब्रह्माण्डों को चालन कर रही है, वह सर्वशक्तिरूप परमात्मा (उद्वेति) संयमी पुरुषों के हृदय में प्रकाशित होता है ॥२॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में परमात्मा को सर्वोपरि वर्णन करते हुए यह वर्णन किया है कि सबका स्वामी परमात्मा जो सम्राट् के केतु झंडे के समान सर्वोपरि विराजमान है, वह सूर्य्य, चन्द्रमा, पृथिवी तथा अन्तरिक्ष आदि कोटि-कोटि ब्रह्माण्डों को रथ के चक्र के समान अपनी धुराओं पर घुमाता हुआ सबको अपने नियम में चला रहा है, उस परमात्मा को संयमी पुरुष ध्यान द्वारा प्राप्त करते हैं ॥ जो लोग वेदमन्त्रों को सूर्यादि जड़ पदार्थों के उपासन तथा वर्णन में लगाते हैं, उनको इस मन्त्र के “सूर्य्यस्य” पद से यह अर्थ सीख लेना चाहिए कि वेद सूर्य्य के भी सूर्य्य को सूर्य्य नाम से कहता है, इसी अभिप्राय से इस सूक्त के प्रथम मन्त्र में परमात्मा को मनुष्यों का सूर्य्य और इस मन्त्र में उसको भौतिक सूर्य्य का चलानेवाला कहा है, इसी भाव को लेकर केनोपनिषद् २।२। में “चक्षुषश्चक्षुः” उसको चक्षु का भी चक्षु कथन किया है अर्थात् वह परमात्मा सूर्य्य का सूर्य्य, प्राण का प्राण तथा चक्षु का चक्षु है, या यों कहो कि सूर्य्य, प्राण और चक्षु आदि अनन्त नामों से उसी का वर्णन किया गया है, इसलिए परस्पर विरोध नहीं ॥२॥

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    High rises the progenitor and inspirer of humanity, supreme light of omniscience, inexhaustible ocean of omnificence, keeping the chariot of the sun and the wheel of time constantly moving, omnipotent motive force at the centre of the moving universe.

    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात परमेश्वराचे वर्णन केलेले आहे. सम्राटाच्या ध्वजाप्रमाणे सर्वांचा स्वामी परमेश्वर सर्वत्र विराजमान आहे. तो सूर्य, चंद्र, पृथ्वी, अंतरिक्ष इत्यादी कोटी कोटी ब्रह्मांडांना रथाच्या चक्राप्रमाणे आपल्या धुरीवर फिरवितो त्या परमेश्वराला संयमी पुरुष ध्यानाद्वारे प्राप्त करतात.

    टिप्पणी

    जे लोक सूर्य इत्यादी जड पदार्थांचे उपासन व वर्णन करतात त्यांनी या मंत्रातील ‘सूर्यस्य’ या पदावरून अर्थ घेतला पाहिजे, की वेद सूर्याच्याही सूर्याला सूर्य नाव देतो. या अभिप्रायाने या सूक्ताच्या प्रथम मंत्रात परमेश्वराला सूर्य म्हटलेले आहे, तर या मंत्रात त्याला भौतिक सूर्याला गती देणारा म्हटले आहे. याच भावाने केनोपनिषद १/२ मध्ये ‘चक्षुषश्चक्षु’ त्याला चक्षूचा चक्षू असे म्हटलेले आहे. अर्थात, तो परमेश्वर सूर्याचा सूर्य, प्राणाचा प्राण, चक्षूचा चक्षू आहे. सूर्य, प्राण व चक्षू इत्यादी अनंत नावांनी त्याचेच वर्णन केले गेलेले आहे. त्यामुळे परस्पर विरोध नाही ॥२॥

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