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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 63 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 63/ मन्त्र 4
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - सूर्यः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    दि॒वो रु॒क्म उ॑रु॒चक्षा॒ उदे॑ति दू॒रेअ॑र्थस्त॒रणि॒र्भ्राज॑मानः । नू॒नं जना॒: सूर्ये॑ण॒ प्रसू॑ता॒ अय॒न्नर्था॑नि कृ॒णव॒न्नपां॑सि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दि॒वः । रु॒क्मः । उ॒रु॒ऽचक्षाः॑ । उत् । ए॒ति॒ । दू॒रेऽअ॑र्थः । त॒रणिः॑ । भ्राज॑मानः । नू॒नम् । जनाः॑ । सूर्ये॑ण । प्रऽसू॑ताः । अय॑न् । अर्था॑नि । कृ॒णव॑न् । अपां॑सि ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    दिवो रुक्म उरुचक्षा उदेति दूरेअर्थस्तरणिर्भ्राजमानः । नूनं जना: सूर्येण प्रसूता अयन्नर्थानि कृणवन्नपांसि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    दिवः । रुक्मः । उरुऽचक्षाः । उत् । एति । दूरेऽअर्थः । तरणिः । भ्राजमानः । नूनम् । जनाः । सूर्येण । प्रऽसूताः । अयन् । अर्थानि । कृणवन् । अपांसि ॥ ७.६३.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 63; मन्त्र » 4
    अष्टक » 5; अध्याय » 5; वर्ग » 5; मन्त्र » 4
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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (तरणिः) सर्वस्य तारकः (भ्राजमानः) प्रकाशस्वरूपः (दूरेअर्थः) सर्वत्र परिपूर्णः (दिवः) द्युलोकस्य (रुक्मः) प्रकाशकः (उरुचक्षाः) सर्वद्रष्टा, एवंविधः परमात्मा तेषां हृदये (उदेति) आविर्भवति, (जनाः) ये मनुष्याः (नूनम्) निश्चयेन (सूर्येण) परमात्मोपदिष्टेन मार्गेण (अयन्) गच्छन्तः (प्रसूताः) प्रेरिताः (अर्थानि) अनुष्ठेयानि (अपांसि) कर्माणि (कृणवन्) कुर्वन्ति ॥४॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (तरणिः) सब का तारक (भ्राजमानः) प्रकाशरूप (दूरेअर्थः) सर्वत्र परिपूर्ण (दिवः रुक्मः) द्युलोक का प्रकाशक (उरुचक्षाः) सर्वद्रष्टा परमात्मा उन लोगों के हृदय में (उदेति) उदय होता है, जो (जनाः) पुरुष (नूनम्) निश्चय करके (सूर्येण) परमात्मा के बतलाये हुए (अयन्) मार्गों पर चलते हुए (प्रसूताः) नूतन जन्मवाले (अर्थानि) सार्थक (अपांसि) कर्म (कृणवन्) करते हैं ॥४॥

    भावार्थ

    परमात्मा उपदेश करते हैं कि हे पुरुषो ! सन्मार्ग दिखलानेवाला प्रकाशस्वरूप परमात्मा सर्वत्र परिपूर्ण और चमकते हुए द्युलोक का भी प्रकाशक है, वह स्वतःप्रकाश प्रभु उन पुरुषों के हृदय में प्रकाशित होता है, जो उसकी आज्ञा का पालन करते और वेदविहित कर्म करके सफलता को प्राप्त होते हैं ॥ तात्पर्य यह है कि यावदायुष वेदविहित कर्म करनेवाले सत्कर्मी पुरुषों के हृदय में परमात्मा का प्रकाश होता है, निरुद्यमी, आलसी तथा अज्ञानियों के हृदय में नहीं, इसी भाव को “कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समाः” यजु॰ ४०।२॥ इस मन्त्र में निरूपण किया है कि वेदविहित कर्म करते हुए ही सौ वर्ष जीने की इच्छा करो ॥४॥

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    विषय

    सर्वप्रेरक सूर्यवत् ज्ञानी से प्रेरित जनों की सदर्थ-प्राप्ति । (

    भावार्थ

    सूर्य जिस प्रकार ( दिवः रुक्म ) विशाल आकाश में सुवर्ण के आभरण के समान देदीप्यमान ( उरु-चक्षाः ) बड़े २ विशाल आकाश और लोकों को प्रकाशित करता हुआ (तरणिः) आकाश पार करने वाला, (भ्राजमानः ) चमकता हुआ ( दूरे- अर्थ: ) दूर २ तक स्वयं प्रकाश फैलाता हुआ ( उदेति ) उदय होता है। और ( जनाः ) मनुष्य जन्तुगण ( सूर्येण प्रसूताः ) सूर्य द्वारा प्रेरित होकर ( अर्थानि अयन् ) प्राप्तव्य पदार्थों को प्राप्त करते और (अपांसि कृणवन् ) नाना कर्म करते हैं। उसी प्रकार ( तरणिः ) नौका के समान प्रजाजनों, जीवों को समस्त दुःखों से पार करने वाला, ( भ्राजमानः ) प्रकाशमान् तेजस्वी, ( दूरे- अर्थ: ) दूर २ तक जाने वाला, उत्साही दूर देश से भी धन को प्राप्त करने वाला, (उरुचक्षा ) विशाल चक्षु, बहुदर्शी पुरुष ( दिवः रुक्म ) कामनावान् प्रजा के बीच सुशोभित, उनको प्रिय लगने वाला होता है । और ( जनाः ) सब जन, ऐसे ( सूर्येण ) सूर्यवत् ज्ञान और तेज से युक्त पुरुष से ( प्रसूताः ) प्रेरित, उत्पादित, और शिक्षित होकर ( अर्थानि प्रयन् ) अपने प्राप्य पदार्थों को प्राप्त हों और ( अपांसि कृणवन् ) नाना कर्म करते हैं । ( २ ) परमात्मा सबको भवसागर से पार उतारने से 'तरणि ' ( दूरे-अर्थ: ) सर्वव्यापक, सर्वद्रष्टा है, उसी से ( प्रसूताः ) उत्पादित सब जन अपने अभिलाषित फल पाते और कर्म करते हैं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः ॥ १ – ५ सूर्यः । ५, ६ मित्रावरुणौ देवते ॥ छन्दः—१, ६ विराट् त्रिष्टुप् । २, ३, ४, ५ निचृत्त्रिष्टुप् ॥ षडृचं सूक्तम् ॥

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    विषय

    ज्ञानी से प्रेरणा

    पदार्थ

    पदार्थ- सूर्य जैसे (दिवः रुक्म) = आकाश में सुवर्ण आभरण तुल्य देदीप्यमान (उरु-चक्षा:) = विशाल आकाश और लोकों का प्रकाशक (तरणिः) = आकाश पार करनेवाला, (भ्राजमानः) = चमकता हुआ (दूरे-अर्थ:) = दूर-दूर तक स्वयं प्रकाश फैलाता हुआ उदेति उदय होता है और (जनाः) = मनुष्य, जन्तुगण (सूर्येण प्रसूता:) = सूर्य द्वारा प्रेरित होकर (अर्थानि अयन्) = पदार्थ प्राप्त करते और (अपांसि कृणवन्) = कर्म करते हैं। वैसे ही (तरणिः) = नौका-तुल्य जीवों को दुःखों से पार करनेवाला, (भ्राजमानः) = तेजस्वी, (दूरे अर्थ:) = दूर-दूर तक जानेवाला, दूर से भी धन प्राप्त करनेवाला, (उरु चक्षाः) = बहुदर्शी पुरुष (दिवः रुक्म) = कामनावान् प्रजा के बीच सुशोभित, उनको प्रिय होता है और (जना:) = सब जन, ऐसे (सूर्येण) = सूर्यवत् ज्ञान और तेज से युक्त पुरुष से (प्रसूता:) = प्रेरित और शिक्षित से होकर (अर्थानि प्रयन्) = अपने प्राप्य पदार्थों को प्राप्त हों और (अपांसि कृण्वन्) = नाना कर्म करें।

    भावार्थ

    भावार्थ- ज्ञानी पुरुष राष्ट्र में कर्मशील होकर अपने जीवन व्यवहार से प्रजा के समक्ष आदर्श प्रस्तुत करे। जलमार्ग आदि से अन्य देशों के साथ व्यापार करके राष्ट्र में धन की वृद्धि करता है। अन्य देशों से सामान लाकर अपनी प्रजा में उन पदार्थों की कमी को पूरा करके लोगों की आवश्यकताओं की पूर्ति करता है। इससे अन्य लोग भी प्रेरणा पाकर राष्ट्र को समृद्ध बनाने के लिए इस कार्य को बढ़ाते हैं।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    The self-refulgent lord of heavenly light all watching, all-saviour, present far and wide everywhere, emerges and shines in the heart of people when they, inspired and reborn into self-consciousness by the light of divinity, follow the meaningful paths of life and perform their karmic acts with piety.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्मा उपदेश करतो, की हे पुरुषांनो! तो सन्मार्ग दर्शविणारा प्रकाशस्वरूप परमात्मा सर्वत्र परिपूर्ण व तेजस्वी, द्युलोकाचा प्रकाशक आहे. तो स्वयंप्रकाशी प्रभू त्या पुरुषांच्या हृदयात प्रकट होतो जे त्याच्या आज्ञेचे पालन करतात व वेदविहित कर्म करून सफल होतात.

    टिप्पणी

    तात्पर्य हे आहे, की आयुष्यभर वेदविहित कर्म करणाऱ्या सत्कर्मी पुरुषांच्या हृदयात परमेश्वराचा प्रकाश होतो. निरुद्यमी आळशी व अज्ञानींच्या हृदयात नाही. याच भावाने ‘कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छत––समा:’ यजु. ४०/२॥ या मंत्रात निरूपण केलेले आहे, की वेदविहित कर्म करीत शंभर वर्षे जगण्याची इच्छा करा ॥४॥

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