ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 73/ मन्त्र 4
उप॒ त्या वह्नी॑ गमतो॒ विशं॑ नो रक्षो॒हणा॒ सम्भृ॑ता वी॒ळुपा॑णी । समन्धां॑स्यग्मत मत्स॒राणि॒ मा नो॑ मर्धिष्ट॒मा ग॑तं शि॒वेन॑ ॥
स्वर सहित पद पाठउप॑ । त्या । वह्नी॒ इति॑ । ग॒म॒तः॒ । विश॑म् । नः॒ । र॒क्षः॒ऽहना॑ । सम्ऽभृ॑ता । वी॒ळुपा॑णी॒ इति॑ वी॒ळुऽपा॑णी । सम् । अन्धां॑सि । अ॒ग्म॒त॒ । म॒त्स॒राणि॑ । मा । नः॒ । म॒र्धि॒ष्ट॒म् । आ । ग॒त॒म् । शि॒वेन॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
उप त्या वह्नी गमतो विशं नो रक्षोहणा सम्भृता वीळुपाणी । समन्धांस्यग्मत मत्सराणि मा नो मर्धिष्टमा गतं शिवेन ॥
स्वर रहित पद पाठउप । त्या । वह्नी इति । गमतः । विशम् । नः । रक्षःऽहना । सम्ऽभृता । वीळुपाणी इति वीळुऽपाणी । सम् । अन्धांसि । अग्मत । मत्सराणि । मा । नः । मर्धिष्टम् । आ । गतम् । शिवेन ॥ ७.७३.४
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 73; मन्त्र » 4
अष्टक » 5; अध्याय » 5; वर्ग » 20; मन्त्र » 4
अष्टक » 5; अध्याय » 5; वर्ग » 20; मन्त्र » 4
विषय - उन के कर्तव्य और उपदेश ।
भावार्थ -
हे विद्वान् स्त्री पुरुषो ! आप दोनों ( रक्षोहणा ) विघ्नकारी दुष्ट पुरुषों का नाश करने वाले, (संभृता) अच्छी प्रकार परिपुष्ट, ( वीडुपाणी ) बलवान् हाथों वाले होकर ( त्या ) वे दोनों आप ( वह्नी ) कार्यभार को वा गृहस्थ को अच्छी प्रकार उठाने में अश्वों के समान दृढ़, अग्नियों के समान तेजस्वी होकर एवं विवाहित होकर ( नः विशं उप गमतः ) हमारे प्रजा वर्ग में प्राप्त होवो । ( नः) हमारे (मत्सराणि ) उत्तम, तृप्तिकारक ( अन्धांसि ) अन्नों को ( सम अग्मत ) प्रेमपूर्वक मिलकर प्राप्त करो । ( शिवेन ) कल्याणकारक, सुखप्रद रूप से ( नः आगतं ) हमें प्राप्त होवो, ( नः मा मर्धिष्टं ) हमें पीड़ा मत दो ।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वसिष्ठ ऋषिः ॥ अश्विनौ देवते । छन्दः—१, ५ विराट् त्रिष्टुप् । २, ३, निचृत् त्रिष्टुप् ॥ पञ्चर्चं सूक्तम् ॥
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