ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 94/ मन्त्र 2
शृ॒णु॒तं ज॑रि॒तुर्हव॒मिन्द्रा॑ग्नी॒ वन॑तं॒ गिर॑: । ई॒शा॒ना पि॑प्यतं॒ धिय॑: ॥
स्वर सहित पद पाठशृ॒णु॒तम् । ज॒रि॒तुः । हव॑म् । इन्द्रा॑ग्नी॒ इति॑ । वन॑तम् । गिरः॑ । ई॒शा॒ना । पि॒प्य॒त॒म् । धियः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
शृणुतं जरितुर्हवमिन्द्राग्नी वनतं गिर: । ईशाना पिप्यतं धिय: ॥
स्वर रहित पद पाठशृणुतम् । जरितुः । हवम् । इन्द्राग्नी इति । वनतम् । गिरः । ईशाना । पिप्यतम् । धियः ॥ ७.९४.२
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 94; मन्त्र » 2
अष्टक » 5; अध्याय » 6; वर्ग » 17; मन्त्र » 2
अष्टक » 5; अध्याय » 6; वर्ग » 17; मन्त्र » 2
विषय - इन्द्र-अग्नि, विद्वान् गुरु शिष्यों के कर्त्तव्य।
भावार्थ -
हे ( इन्द्राग्नी ) ऐश्वर्य और विनयशील पुरुषो ! आप दोनों ही, ( जरितुः ) उपदेष्टा, जन के ( हवम् ) ग्राह्य उपदेश का श्रवण करो । ( गिरः ) उत्तम वेद वाणियों और ( गिरः ) उपदेष्टा जनों की ( वनतम् ) याचना और सेवा किया करो। ( ईशाना धियः ) अधिक समर्थ होकर सत्कर्मों और सद-बुद्धियों को ( पिप्यतम् ) बढ़ाओ, अधिक दूर तक फैलाओ।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वसिष्ठ ऋषिः॥ इन्द्राग्नी देवते॥ छन्दः—१, ३, ८, १० आर्षी निचृद् गायत्री । २, ४, ५, ६, ७, ९ , ११ आर्षी गायत्री । १२ आर्षी निचृदनुष्टुप् ॥ द्वादर्शं सूक्तम्॥
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