ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 95/ मन्त्र 1
प्र क्षोद॑सा॒ धाय॑सा सस्र ए॒षा सर॑स्वती ध॒रुण॒माय॑सी॒ पूः । प्र॒बाब॑धाना र॒थ्ये॑व याति॒ विश्वा॑ अ॒पो म॑हि॒ना सिन्धु॑र॒न्याः ॥
स्वर सहित पद पाठप्र । क्षोद॑सा । धाय॑सा । स॒स्रे॒ । ए॒षा । सर॑स्वती । ध॒रुण॑म् । आय॑सी । पूः । प्र॒ऽबाब॑धाना । र॒थ्या॑ऽइव । या॒ति॒ । विश्वाः॑ । अ॒पः । म॒हि॒ना । सिन्धुः॑ । अ॒न्याः ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र क्षोदसा धायसा सस्र एषा सरस्वती धरुणमायसी पूः । प्रबाबधाना रथ्येव याति विश्वा अपो महिना सिन्धुरन्याः ॥
स्वर रहित पद पाठप्र । क्षोदसा । धायसा । सस्रे । एषा । सरस्वती । धरुणम् । आयसी । पूः । प्रऽबाबधाना । रथ्याऽइव । याति । विश्वाः । अपः । महिना । सिन्धुः । अन्याः ॥ ७.९५.१
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 95; मन्त्र » 1
अष्टक » 5; अध्याय » 6; वर्ग » 19; मन्त्र » 1
अष्टक » 5; अध्याय » 6; वर्ग » 19; मन्त्र » 1
विषय - सरस्वती । नदीवत् पत्नी या स्त्री के कर्त्तव्य ।
भावार्थ -
पत्नी या स्त्री के कर्त्तव्य—जिस प्रकार (सिन्धुः ) बहने वाली नदी ( क्षोदसा सस्त्रे ) पानी से बहती है, ( आयसीः पूः ) लोहे के बने प्रकोट के समान नगर की रक्षा करती, ( रथ्या इव ) रथ में लगे अश्वों के समान ( प्र बाबधाना ) मार्ग में आये वृक्षलतादि को उखाड़ती हुई, ( अन्याः अपः च प्रबाबधाना ) अन्य सब जल-धाराओं को बांधती हुई सब से मुख्य होकर ( याति ) आगे बढ़ती है उसी प्रकार ( सरस्वती ) उत्तम ज्ञानयुक्त विदुषी स्त्री ( धायसा ) पुष्टिकारक बालक को पिलाने योग्य दूध ( क्षोदसा ) और अन्न से ( प्रसस्त्रे ) प्रेम से प्रवाहित होती है । वह (धरुणम् ) गृहस्थ को धारण करने वाली और सबका आश्रय हो, वह ( आयसी पूः ) लोहे के प्रकोट के समान, दृढ़ एवं ( आ-यसी ) सब प्रकार से परिश्रम करने वाली और ( पू: ) प्रवचनों और परिवार के पालन करने वाली हो । वह (रथ्या इव ) रथ में लगने योग्य अश्वों के समान दृढ़ होकर और वह ( महिना ) अपने सामर्थ्य से ( विश्वाः अन्याः अपः ) अन्य आप्त जनों को ( सिन्धुः ) समुद्र या महानद के समान ( प्र बाबधाना ) दृढ़ सम्बन्ध से बांधती हुई ( याति ) संसार-मार्ग पर चले।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वसिष्ठ ऋषिः ॥ १, २, ४–६ सरस्वती । ३ सरस्वान् देवता॥ छन्दः—१ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। २, ५, ६ आर्षी त्रिष्टुप् । ३, ४ विराट् त्रिष्टुप्॥ षडृचं सूक्तम्॥
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