ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 94/ मन्त्र 12
ऋषिः - वसिष्ठः
देवता - इन्द्राग्नी
छन्दः - निचृदार्ष्यनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
ताविद्दु॒:शंसं॒ मर्त्यं॒ दुर्वि॑द्वांसं रक्ष॒स्विन॑म् । आ॒भो॒गं हन्म॑ना हतमुद॒धिं हन्म॑ना हतम् ॥
स्वर सहित पद पाठतौ । इत् । दुः॒ऽशंस॑म् । मर्त्य॑म् । दुःऽवि॑द्वांसम् । र॒क्ष॒स्विन॑म् । आ॒ऽभो॒गम् । हन्म॑ना । ह॒त॒म् । उ॒द॒ऽधिम् । हम॑ना । ह॒त॒म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
ताविद्दु:शंसं मर्त्यं दुर्विद्वांसं रक्षस्विनम् । आभोगं हन्मना हतमुदधिं हन्मना हतम् ॥
स्वर रहित पद पाठतौ । इत् । दुःऽशंसम् । मर्त्यम् । दुःऽविद्वांसम् । रक्षस्विनम् । आऽभोगम् । हन्मना । हतम् । उदऽधिम् । हमना । हतम् ॥ ७.९४.१२
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 94; मन्त्र » 12
अष्टक » 5; अध्याय » 6; वर्ग » 18; मन्त्र » 6
अष्टक » 5; अध्याय » 6; वर्ग » 18; मन्त्र » 6
विषय - दुष्टाचारी को उचित दण्ड ।
भावार्थ -
( तौ इद् ) वे दोनों ही ( दुःशंसं ) दुर्वचन, कठोर भाषण करने वाले ( दुर्विद्वांसं ) दुर्गुणी विद्यावान्, ( रक्षस्विनम् ) अन्यों के कार्यों में विघ्न करने वाले के सहायक ( आभोगं) चारों तरफ से भोग विलास में मग्न, भोगप्रिय, ( मर्त्यं ) मनुष्य को ( हन्मना ) हननकारी साधन, हथियार से ( हतम् ) दण्ड दो। और (उद-धिम् ) पानी को धारण करने वाले घट या तालाब के समान उसको भी ( हन्मना हतम् ) शस्त्र द्वारा नाश करो। जिस प्रकार घट या जलाशय को दण्डे या फावड़े से तोड़ या खोदकर उसका जल ले निकाल कर उसे खाली कर दिया जाता है उसी प्रकार दुर्वचनी, दुराचारी, दुष्टसंगी पुरुष को भी मार २ कर, उसका सर्वस्व हर लेना चाहिये । इत्यष्टादशो वर्गः ॥
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वसिष्ठ ऋषिः॥ इन्द्राग्नी देवते॥ छन्दः—१, ३, ८, १० आर्षी निचृद् गायत्री । २, ४, ५, ६, ७, ९ , ११ आर्षी गायत्री । १२ आर्षी निचृदनुष्टुप् ॥ द्वादर्शं सूक्तम्॥
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