ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 98/ मन्त्र 1
अध्व॑र्यवोऽरु॒णं दु॒ग्धमं॒शुं जु॒होत॑न वृष॒भाय॑ क्षिती॒नाम् । गौ॒राद्वेदी॑याँ अव॒पान॒मिन्द्रो॑ वि॒श्वाहेद्या॑ति सु॒तसो॑ममि॒च्छन् ॥
स्वर सहित पद पाठअध्व॑र्यवः । अ॒रु॒णम् । दु॒ग्धम् । अं॒शुम् । जु॒होत॑न । वृ॒ष॒भाय॑ । क्षि॒ती॒नाम् । गौ॒रात् । वेदी॑यान् । अ॒व॒ऽपान॑म् । इन्द्रः॑ । वि॒श्वाहा॑ । इत् । या॒ति॒ । सु॒तऽसो॑मम् । इ॒च्छन् ॥
स्वर रहित मन्त्र
अध्वर्यवोऽरुणं दुग्धमंशुं जुहोतन वृषभाय क्षितीनाम् । गौराद्वेदीयाँ अवपानमिन्द्रो विश्वाहेद्याति सुतसोममिच्छन् ॥
स्वर रहित पद पाठअध्वर्यवः । अरुणम् । दुग्धम् । अंशुम् । जुहोतन । वृषभाय । क्षितीनाम् । गौरात् । वेदीयान् । अवऽपानम् । इन्द्रः । विश्वाहा । इत् । याति । सुतऽसोमम् । इच्छन् ॥ ७.९८.१
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 98; मन्त्र » 1
अष्टक » 5; अध्याय » 6; वर्ग » 23; मन्त्र » 1
अष्टक » 5; अध्याय » 6; वर्ग » 23; मन्त्र » 1
विषय - मनुष्यों को यज्ञ का उपदेश।
भावार्थ -
हे (अध्वर्यवः) यज्ञ के इच्छुक प्रजापीड़न, और प्रजाहिंसन को न चाहने वाले दयाशील प्रजाजनो ! आप लोग ( क्षितीनाम् ) मनुष्यों में ( वृषभाय ) श्रेष्ठ पुरुष के लिये ( अरुणं ) रुचिकर, कभी न रुकने वाले, (दुग्धम् ) दूध के समान, समस्त भूमि-भागों से प्राप्त ( अंशुम् ) अन्नादि, का अंशभाग करवत् ( जुहोतन) प्रदान करो । ( सुत-सोमम् इच्छन् ) अभिषेक द्वारा प्राप्त होने योग्य ऐश्वर्य को प्राप्त करना चाहता हुआ, ( इन्द्रः ) शत्रुहन्ता राजा, ( गौरात् ) भूमि में रमण करने वाले, प्रजाजन से ( अवपानं वेदोयान् ) अपने अधीन प्रजा पालन करने का वेतन प्राप्त करता हुआ ( विश्वाहा इत् याति ) सदा प्राप्त हो । ( २ ) यज्ञ में याज्ञिक लोग भूमियों पर बरसने वाले मेघ के लिये शुद्ध दूध और ओषधियों की आहुति दें तब 'इन्द्र' अर्थात् सूर्य ओषधि-उत्पादक 'अवपान' अर्थात् जल को किरणों द्वारा ( गौरात् ) पृथ्वी पर के जलाशय समुद्रादि से प्राप्त करने लगता है ।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वसिष्ठ ऋषिः॥ १–६ इन्द्रः। ७ इन्द्राबृहस्पती देवते। छन्द:— १, २, ६, ७ निचृत् त्रिष्टुप्। ३ विराट् त्रिष्टुप्। ४, ५ त्रिष्टुप्॥ षड्चं सूक्तम्॥
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