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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 98 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 98/ मन्त्र 3
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - इन्द्र: छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    ज॒ज्ञा॒नः सोमं॒ सह॑से पपाथ॒ प्र ते॑ मा॒ता म॑हि॒मान॑मुवाच । एन्द्र॑ पप्राथो॒र्व१॒॑न्तरि॑क्षं यु॒धा दे॒वेभ्यो॒ वरि॑वश्चकर्थ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ज॒ज्ञा॒नः । सोम॑म् । सह॑से । प॒पा॒थ॒ । प्र । ते॒ । मा॒ता । म॒हि॒मान॑म् । उ॒वा॒च॒ । आ । इ॒न्द्र॒ । प॒प्रा॒थ॒ । उ॒रु । अ॒न्तरि॑क्षम् । यु॒धा । दे॒वेभ्यः॑ । वरि॑वः । च॒क॒र्थ॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    जज्ञानः सोमं सहसे पपाथ प्र ते माता महिमानमुवाच । एन्द्र पप्राथोर्व१न्तरिक्षं युधा देवेभ्यो वरिवश्चकर्थ ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    जज्ञानः । सोमम् । सहसे । पपाथ । प्र । ते । माता । महिमानम् । उवाच । आ । इन्द्र । पप्राथ । उरु । अन्तरिक्षम् । युधा । देवेभ्यः । वरिवः । चकर्थ ॥ ७.९८.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 98; मन्त्र » 3
    अष्टक » 5; अध्याय » 6; वर्ग » 23; मन्त्र » 3

    भावार्थ -
    विजिगीषु राजा का कर्त्तव्य । हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! शत्रुहन् ! राजन् ! तू ( जज्ञान: ) प्रकट होकर ही ( सहसे ) शत्रु विजयी बल को बढ़ाने के लिये ( सोमं ) ऐश्वर्यमय राष्ट्र को ( पपाथ ) पालन कर और ( माता ) सब जगत् को उत्पन्न करने वाली भूमि माता ( ते महिमानम् ) तेरे महान् सामर्थ्य को ( प्र उवाच ) उत्तम रीति से कहे । हे (इन्द्र) सेनानायक ! तू ( उरु अन्तरिक्षं ) विशाल अन्तरिक्ष को भी ( युधा ) युद्ध साधनों से ( अ पप्राथ ) विस्तृत कर और ( देवेभ्यः वरिवः चकर्थ ) विजयेच्छुक सैनिकों और प्रजाजनों के लिये बहुत धन उत्पन्न कर । ( २ ) सूर्य या विद्युत् ओषधि की रक्षा करता है; भूमि भी उसके महान् सामर्थ्य को बतलाती है; (युधा) प्रहारकारी विद्युत् से आकाश को पूर्ण करता, अन्न की कामना करने वाले मनुष्यों के लिये अन्न उत्पन्न करता है ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वसिष्ठ ऋषिः॥ १–६ इन्द्रः। ७ इन्द्राबृहस्पती देवते। छन्द:— १, २, ६, ७ निचृत् त्रिष्टुप्। ३ विराट् त्रिष्टुप्। ४, ५ त्रिष्टुप्॥ षड्चं सूक्तम्॥

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