ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 20/ मन्त्र 2
वी॒ळु॒प॒विभि॑र्मरुत ऋभुक्षण॒ आ रु॑द्रासः सुदी॒तिभि॑: । इ॒षा नो॑ अ॒द्या ग॑ता पुरुस्पृहो य॒ज्ञमा सो॑भरी॒यव॑: ॥
स्वर सहित पद पाठवी॒ळु॒प॒विऽभिः॑ । म॒रु॒तः॒ । ऋ॒भु॒क्ष॒णः॒ । आ । रु॒द्रा॒सः॒ । सु॒दी॒तिऽभिः॑ । इ॒षा । नः॒ । अ॒द्य । आ । ग॒त॒ । पु॒रु॒ऽस्पृ॒हः॒ । य॒ज्ञम् । आ । सो॒भ॒री॒ऽयवः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
वीळुपविभिर्मरुत ऋभुक्षण आ रुद्रासः सुदीतिभि: । इषा नो अद्या गता पुरुस्पृहो यज्ञमा सोभरीयव: ॥
स्वर रहित पद पाठवीळुपविऽभिः । मरुतः । ऋभुक्षणः । आ । रुद्रासः । सुदीतिऽभिः । इषा । नः । अद्य । आ । गत । पुरुऽस्पृहः । यज्ञम् । आ । सोभरीऽयवः ॥ ८.२०.२
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 20; मन्त्र » 2
अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 36; मन्त्र » 2
अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 36; मन्त्र » 2
विषय - मरुतों अर्थात् वीरों, विद्वानों के कर्तव्य । वायु और जल लाने वाले वायु प्रवाहों के वर्णन ।
भावार्थ -
हे ( मरुतः ) शत्रुओं को मारने वाले ! हे ( ऋभुक्षणः ) महान् बल वालो ! हे ( रुद्रासः ) दुष्टों को रुलाने और प्रजा के रोगों, कष्टों को दूर करने वालो ! हे ( पुरु-स्पृहः ) बहुत से प्रजावर्गों को प्रेम करने, बहुतों के प्रेमपात्र होने वालो ! हे ( सोभरीयवः ) उत्तम पालक पोषक नायकों को चाहने वालो ! आप लोग ( वीडुपविभिः ) दृढ़ शस्त्रों, बढ़ चक्रधाराओं और ( सु-दीतिभिः ) उत्तम कान्तियों से युक्त होकर ( अद्य ) आज ( नः ) हमारे ( यज्ञम् ) यज्ञ को ( इषा आ गत ) इच्छा, अन्न, वा सुभिक्ष और सुवृष्टिसहित पवनों के समान ही ( नः आ गत ) हमें प्राप्त होवो।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - सोभरिः काण्व ऋषिः॥ मरुतो देवता॥ छन्द:—१, ५, ७, १९, २३ उष्णिक् ककुम् । ९, १३, २१, २५ निचृदुष्णिक् । ३, १५, १७ विराडुष्णिक्। २, १०, १६, २२ सतः पंक्ति:। ८, २०, २४, २६ निचृत् पंक्ति:। ४, १८ विराट् पंक्ति:। ६, १२ पादनिचृत् पंक्ति:। १४ आर्ची भुरिक् पंक्ति:॥ षड्विंशर्चं सूक्तम्॥
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