ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 26/ मन्त्र 1
ऋषिः - विश्वमना वैयश्वो व्यश्वो वाङ्गिरसः
देवता - अश्विनौ
छन्दः - उष्णिक्
स्वरः - ऋषभः
यु॒वोरु॒ षू रथं॑ हुवे स॒धस्तु॑त्याय सू॒रिषु॑ । अतू॑र्तदक्षा वृषणा वृषण्वसू ॥
स्वर सहित पद पाठयु॒वोर् ऊँ॒ इति॑ । सु । रथ॑म् । हु॒वे॒ । स॒धऽस्तु॑त्याय । सू॒रिषु॑ । अतू॑र्तऽदक्षा । वृ॒ष॒णा॒ । वृ॒ष॒ण्व॒सू॒ इति॑ वृषण्ऽवसू ॥
स्वर रहित मन्त्र
युवोरु षू रथं हुवे सधस्तुत्याय सूरिषु । अतूर्तदक्षा वृषणा वृषण्वसू ॥
स्वर रहित पद पाठयुवोर् ऊँ इति । सु । रथम् । हुवे । सधऽस्तुत्याय । सूरिषु । अतूर्तऽदक्षा । वृषणा । वृषण्वसू इति वृषण्ऽवसू ॥ ८.२६.१
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 26; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 26; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 26; मन्त्र » 1
विषय - उत्तम नायक, राजा प्रजा, वा पति-पत्नी जनों के गुणों और कर्त्तव्यों का वर्णन।
भावार्थ -
हे (वृषण्वसू) सुखप्रद, धन और बलवान् पुरुष रूप धन से धनी प्रधान नायक पुरुषो ! राजा प्रजा वा पति पत्नी जनो ! आप दोनों ( वृषणा ) बलवान्, उत्तम सुखों और वीर्यादि के सेक्ता और ( अतूर्त्तदक्षा ) न नष्ट होने वाले स्थायी बल सामर्थ्य से युक्त होवो। ( सूरिषु ) विद्वान् पुरुषों के बीच में ( सध-स्तुत्याय ) एक साथ मिलकर स्तुति प्राप्त करने के लिये ( युवोः ) तुम दोनों को ( रथं ) उत्तम उपदेश, उत्तम आचार, उत्तम रमणकारी साधन रथादि ( सु-हुवे उ ) उत्तम रीति से प्रदान करूं।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - विश्वमना वैयश्वो वाङ्गिरस ऋषिः॥ १—१९ अश्विनौ। २०—२५ वायुदेवता॥ छन्दः—१, ३, ४, ६, ७ उष्णिक्। २, ८, २३ विराडुष्णिक्। ५, ९—१५, २२ निचृदुष्णिक्। २४ पादनिचृदुष्णिक्। १६, १९ विराड् गायत्री। १७, १८, २१ निचृद् गायत्री। २५ गायत्री। २० विराडनुष्टुप्॥ पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम्॥
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