ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 29/ मन्त्र 9
ऋषिः - मनुर्वैवस्वतः कश्यपो वा मारीचः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - आर्चीभुरिग्गायत्री
स्वरः - षड्जः
सदो॒ द्वा च॑क्राते उप॒मा दि॒वि स॒म्राजा॑ स॒र्पिरा॑सुती ॥
स्वर सहित पद पाठसदः॑ । द्वा । च॒क्रा॒ते॒ इति॑ । उ॒प॒ऽमा । दि॒वि । स॒म्ऽराजा॑ । स॒र्पिर्ऽआ॑सुती॒ इति॑ स॒र्पिःऽआ॑सुती ॥
स्वर रहित मन्त्र
सदो द्वा चक्राते उपमा दिवि सम्राजा सर्पिरासुती ॥
स्वर रहित पद पाठसदः । द्वा । चक्राते इति । उपऽमा । दिवि । सम्ऽराजा । सर्पिर्ऽआसुती इति सर्पिःऽआसुती ॥ ८.२९.९
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 29; मन्त्र » 9
अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 36; मन्त्र » 9
अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 36; मन्त्र » 9
विषय - जीव और प्रभु का प्रकृति के साथ वर्णन ।
भावार्थ -
( द्वा ) वे दोनों ( उपमा ) एक दूसरे के तुल्य होकर ही ( दिवि ) द्यौ अर्थात् जीव कामना में और प्रभु तेजोमय आनन्दमय मोक्ष में ( सद: चक्राते ) अपना स्थान बनाये रहते हैं। वे दोनों ( सम्राजा ) खूब दीप्तिमान् ( सर्पि:-आसुती ) घृत आसेचन योग्य दो अग्नियों के तुल्य हैं। प्रभु ( सर्पि:-आसुतिः ) सर्पणशील सूर्यादि लोकों का उत्पादक, और उनका संचालक है। इसी प्रकार जीव भी प्राणों का संचालक है ।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - मनुर्वैवस्वतः कश्यपो वा मारीच ऋषिः॥ विश्वेदेवा देवताः॥ छन्दः— १, २ आर्ची गायत्री। ३, ४, १० आर्ची स्वराड् गायत्री। ५ विराड् गायत्री। ६—९ आर्ची भुरिग्गायत्री॥ नवर्चं सूक्तम् ॥
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