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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 32/ मन्त्र 4
    ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    प्रति॑ श्रु॒ताय॑ वो धृ॒षत्तूर्णा॑शं॒ न गि॒रेरधि॑ । हु॒वे सु॑शि॒प्रमू॒तये॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्रति॑ । श्रु॒ताय॑ । वः॒ । धृ॒षत् । तूर्णा॑शम् । न । गि॒रेः । अधि॑ । हु॒वे । सु॒ऽशि॒प्रम् । ऊ॒तये॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्रति श्रुताय वो धृषत्तूर्णाशं न गिरेरधि । हुवे सुशिप्रमूतये ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्रति । श्रुताय । वः । धृषत् । तूर्णाशम् । न । गिरेः । अधि । हुवे । सुऽशिप्रम् । ऊतये ॥ ८.३२.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 32; मन्त्र » 4
    अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 1; मन्त्र » 4

    भावार्थ -
    जिस प्रकार ( गिरेः तूर्णाशं अधि धृषत् ) विद्युत् मेघ से जल को बलपूर्वक गिरा देता है उसी प्रकार वह शत्रुहन्ता राजा ( श्रुताय ) प्रसिद्ध होने के लिये ( वः ) आप प्रजा जनों के ( ऊर्णंशं ) हिंसा द्वारा नाश करने वाले दुष्ट दल को ( गिरेः अधि ) स्वयं पर्वतवत् उच्च पद से ( प्रति अधि कृषत् ) उसका मुकाबला करके खूब अधिक धर्षण करे उसे अधिकारपूर्वक दण्डित करे। जिससे वह फिर सिर न उठा सके। उसी ( सुशिप्रम् ) सुन्दर मुख, नासिका, वा मुकुट से सजे वा उत्तम वीर्यवान् राजा को मैं ( ऊतये ) प्रजागण अपनी रक्षा के लिये ( हुवे ) पुकारूं, उससे प्रार्थना करूं।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - काण्वो मेधातिथि: ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ७, १३, १५, २७, २८ निचृद् गायत्री। २, ४, ६, ८—१२, १४, १६, १७, २१, २२, २४—२६ गायत्री। ३, ५, १९, २०, २३, २९ विराड् गायत्री। १८, ३० भुरिग् गायत्री॥

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