ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 40/ मन्त्र 5
प्र ब्रह्मा॑णि नभाक॒वदि॑न्द्रा॒ग्निभ्या॑मिरज्यत । या स॒प्तबु॑ध्नमर्ण॒वं जि॒ह्मबा॑रमपोर्णु॒त इन्द्र॒ ईशा॑न॒ ओज॑सा॒ नभ॑न्तामन्य॒के स॑मे ॥
स्वर सहित पद पाठप्र । ब्रह्मा॑णि । न॒भा॒क॒ऽवत् । इ॒न्द्रा॒ग्निऽभ्या॑म् । इ॒र॒ज्य॒त॒ । या । स॒प्तऽबु॑ध्नम् । अ॒र्ण॒वम् । जि॒ह्मऽबा॑रम् । अ॒प॒ऽऊ॒र्णु॒तः । इन्द्रः॑ । ईशा॑नः । ओज॑सा । नभ॑न्ताम् । अ॒न्य॒के । स॒मे॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र ब्रह्माणि नभाकवदिन्द्राग्निभ्यामिरज्यत । या सप्तबुध्नमर्णवं जिह्मबारमपोर्णुत इन्द्र ईशान ओजसा नभन्तामन्यके समे ॥
स्वर रहित पद पाठप्र । ब्रह्माणि । नभाकऽवत् । इन्द्राग्निऽभ्याम् । इरज्यत । या । सप्तऽबुध्नम् । अर्णवम् । जिह्मऽबारम् । अपऽऊर्णुतः । इन्द्रः । ईशानः । ओजसा । नभन्ताम् । अन्यके । समे ॥ ८.४०.५
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 40; मन्त्र » 5
अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 24; मन्त्र » 5
अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 24; मन्त्र » 5
विषय - विद्युत् और अग्नितत्वों को वश करने का उपदेश।
भावार्थ -
( या ) जो इन्द्र और अग्नि, वायु और अग्नि या सूर्य और अग्नि ( सप्तबुध्नम् ) सात मूलों वाले ( जिह्म-वारम् ) गुप्त द्वार वाले, दुष्प्राप्य (अर्णवं) सागरवत् अपार ऐश्वर्य को ( अपोर्णुतः ) खोल देते हैं उन ( नभाकवत् इन्द्राग्निभ्याम् ) नभाक अर्थात् अदृश्य रूप से विद्यमान वा बंधनकारक, आकर्षक और आघातकारक ( इन्द्राग्निभ्याम् ) विद्युत् और अग्नि तत्त्वों से ( ब्रह्माणि ) नाना ऐश्वर्यों को ( इरज्यत ) अपने वश करो और उनके बल से ही ( इन्द्रः ) सूर्य भी ( ईशानः ) सबका स्वामी है। उनके बल से ही ( अन्यके समे नभन्ताम् ) समस्त शत्रु नहींसे हो जावें।
टिप्पणी -
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - नाभाक: काण्व ऋषिः॥ इन्दाग्नी देवते॥ छन्दः—१, ११ भुरिक् त्रिष्टुप्। ३, ४ स्वराट् त्रिष्टुप्। १२ निचत् त्रिष्टुप्। २ स्वराट् शक्वरी। ५, ७, जगती। ६ भुरिग्जगती। ८, १० निचृज्जगती। द्वादशर्चं सूक्तम्॥
इस भाष्य को एडिट करें