ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 43/ मन्त्र 3
आ॒रो॒का इ॑व॒ घेदह॑ ति॒ग्मा अ॑ग्ने॒ तव॒ त्विष॑: । द॒द्भिर्वना॑नि बप्सति ॥
स्वर सहित पद पाठआ॒रो॒काःऽइ॑व । घ॒ । इत् । अह॑ । ति॒ग्माः । अ॒ग्ने॒ । तव॑ । त्विषः॑ । द॒त्ऽभिः । वना॑नि । ब॒प्स॒ति॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
आरोका इव घेदह तिग्मा अग्ने तव त्विष: । दद्भिर्वनानि बप्सति ॥
स्वर रहित पद पाठआरोकाःऽइव । घ । इत् । अह । तिग्माः । अग्ने । तव । त्विषः । दत्ऽभिः । वनानि । बप्सति ॥ ८.४३.३
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 43; मन्त्र » 3
अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 29; मन्त्र » 3
अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 29; मन्त्र » 3
विषय - सर्व पापनाशन प्रभु, अग्नि।
भावार्थ -
( दद्भिः वनानि ) जिस प्रकार पशुगण दांतों से जंगलों को खाते हैं और जिस प्रकार अग्नि की ज्वालाएं काष्ठों को मानो खा जाती हैं उसी प्रकार हे (अग्ने) अग्ने ! प्रकाशस्वरूप ! (तव त्विषः) तेरी कान्तियां ( तिग्माः ) तीक्ष्ण होकर, ( आरोकाः इव ) सब ओर चमकती हुई ज्वालाओं के समान (वनानि) जलों को सूर्य किरणोंवत् ( वनानि ) नाश करने योग्य दोषों को ( बप्सति ) मानो खायें डालती हैं, उनका नाश करती हैं। सब पापों को भस्म कर देती हैं।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - विरूप आङ्गिरस ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः—१, ९—१२, २२, २६, २८, २९, ३३ निचृद् गायत्री। १४ ककुम्मती गायत्री। ३० पादनिचृद् गायत्री॥ त्रयस्त्रिंशदृचं सूक्तम्॥
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