ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 43/ मन्त्र 3
आ॒रो॒का इ॑व॒ घेदह॑ ति॒ग्मा अ॑ग्ने॒ तव॒ त्विष॑: । द॒द्भिर्वना॑नि बप्सति ॥
स्वर सहित पद पाठआ॒रो॒काःऽइ॑व । घ॒ । इत् । अह॑ । ति॒ग्माः । अ॒ग्ने॒ । तव॑ । त्विषः॑ । द॒त्ऽभिः । वना॑नि । ब॒प्स॒ति॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
आरोका इव घेदह तिग्मा अग्ने तव त्विष: । दद्भिर्वनानि बप्सति ॥
स्वर रहित पद पाठआरोकाःऽइव । घ । इत् । अह । तिग्माः । अग्ने । तव । त्विषः । दत्ऽभिः । वनानि । बप्सति ॥ ८.४३.३
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 43; मन्त्र » 3
अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 29; मन्त्र » 3
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अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 29; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
3. Like the light of the sun, surely, the brilliant showers of your grace and splendour, with your gifts, illuminate and intensify the beauties of life.
मराठी (1)
भावार्थ
ईश्वराची तीव्र दीप्ती हेच सूर्य इत्यादी आहेत. ज्यांच्यामुळे जगात कितीतरी लाभ होतो. त्यांचे वर्णन कोण करू शकेल?
टिप्पणी
विशेष - या ऋचा भौतिक अग्नीविषयीही लागू होतात. ॥३॥
संस्कृत (1)
विषयः
N/A
पदार्थः
हे अग्ने=सर्वव्यापिन् देव ! तव । तिग्माः=तीक्ष्णाः । त्विषः=दीप्तयः सूर्य्यादिरूपाः । आरोकाः इव=आरोचमानाः इव=रुचिकरा इव । दद्भिः=विविधधनैः सह । वनानि=वननीयानि जगन्ति । बप्सति सदा उपकुर्वन्ति । घ+इद्+अह=अत्र न संशयः ॥३ ॥
हिन्दी (3)
विषय
N/A
पदार्थ
(अग्ने) हे सर्वव्यापिन् महान् देव ! (तव) आपके ये (तिग्माः) तीक्ष्ण (त्विषः) दीप्ति प्रकाश अर्थात् सूर्य्यादिरूप प्रकाश (आरोकाः+इव) मानो सबके रुचिकर होते हुए (दद्भिः) विविध दानों के साथ (वनानि) कमनीय सुन्दर इन जगतों को (बप्सति) सदा उपकार कर रहे हैं । (घ+इत्+अह) इसमें सन्देह नहीं ॥३ ॥
भावार्थ
ईश्वर की तीक्ष्ण दीप्ति ये ही सूर्य्यादिक हैं, जिनसे जगत् को कितने लाभ हो रहे हैं, उसको कौन वर्णन कर सकता है । ये ऋचाएँ भौतिक अग्नि के विषय में भी लगाई जा सकती हैं ॥३ ॥
विषय
सर्व पापनाशन प्रभु, अग्नि।
भावार्थ
( दद्भिः वनानि ) जिस प्रकार पशुगण दांतों से जंगलों को खाते हैं और जिस प्रकार अग्नि की ज्वालाएं काष्ठों को मानो खा जाती हैं उसी प्रकार हे (अग्ने) अग्ने ! प्रकाशस्वरूप ! (तव त्विषः) तेरी कान्तियां ( तिग्माः ) तीक्ष्ण होकर, ( आरोकाः इव ) सब ओर चमकती हुई ज्वालाओं के समान (वनानि) जलों को सूर्य किरणोंवत् ( वनानि ) नाश करने योग्य दोषों को ( बप्सति ) मानो खायें डालती हैं, उनका नाश करती हैं। सब पापों को भस्म कर देती हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विरूप आङ्गिरस ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः—१, ९—१२, २२, २६, २८, २९, ३३ निचृद् गायत्री। १४ ककुम्मती गायत्री। ३० पादनिचृद् गायत्री॥ त्रयस्त्रिंशदृचं सूक्तम्॥
विषय
'वासना-वन-विलय'
पदार्थ
[१] हे (अग्ने) = अग्रणी प्रभो ! (तव) = आपकी (तिग्मा) = अतितीक्ष्ण (त्विषः) = ज्ञानदीप्तियाँ (घा इत् अह) = निश्चय से और अवश्य निश्चय से (वनानि) = हृदयक्षेत्र में उग आनेवाली वासनारूप झाड़ियों को इस प्रकार (बप्सति) = खा जाती हैं। (इव) = जैसे अग्नि की (आरोकाः) = दीप्त-ज्वालाएँ (दद्भिः) = लपट-रूप दाँतों से [वनानि बप्सति] वनों को निगल जाती हैं। [२] अग्नि की ज्वालाओं में वन भस्म हो जाते हैं। इसी प्रकार प्रभु की ज्ञानदीप्तियों में वासनाओं का विध्वंस हो जाता है।
भावार्थ
भावार्थ:- प्रभु की उपासना के होने पर हमारी सब वासनाएँ प्रभु की ज्ञान ज्वालाओं में दग्ध हो जाती हैं।
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