Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 43 के मन्त्र
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 43/ मन्त्र 5
    ऋषिः - विरूप आङ्गिरसः देवता - अग्निः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    ए॒ते त्ये वृथ॑ग॒ग्नय॑ इ॒द्धास॒: सम॑दृक्षत । उ॒षसा॑मिव के॒तव॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ए॒ते । त्ये । वृथ॑क् । अ॒ग्नयः॑ । इ॒द्धासः॑ । सम् । अ॒दृ॒क्ष॒त॒ । उ॒षसा॑म्ऽइव । के॒तवः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एते त्ये वृथगग्नय इद्धास: समदृक्षत । उषसामिव केतव: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    एते । त्ये । वृथक् । अग्नयः । इद्धासः । सम् । अदृक्षत । उषसाम्ऽइव । केतवः ॥ ८.४३.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 43; मन्त्र » 5
    अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 29; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    All these versions of Agni, lit up, shining, blazing, all in their own way, appear beautiful as ensigns of dawns, lights and glories of Agni.

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    ज्या ईश्वराने निर्माण केलेले सूर्य इत्यादी अग्नी जगावर उपकार करतात त्याची उपासना करा. त्याच्या परम विभूती पाहा तेव्हाच त्या प्रभूला ओळखू शकता. ॥५॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेवार्थमाह ।

    पदार्थः

    हे भगवन् ! तव जनिताः । एते । त्ये=ते । अग्नयः । इद्धासः=इद्धाः दीप्ताः सन्तः । पृथक् पृथक् । समदृक्षत=सम्यग् दृश्यन्ते । अयं सूर्य्यः अयमग्निरिति पृथगिव भासते यद्यपि न तयोर्भेदः । पुनस्ते । उषसां केतव इव=ज्ञापका इव ॥५ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (3)

    विषय

    पुनः उसी विषय को कहते हैं ।

    पदार्थ

    हे भगवन् ! आपसे उत्पादित (एते+त्ये) ये वे (अग्नयः) सूर्य्य, विद्युत् और अग्नि आदि भिन्न-२ प्रकार के आग्नेय पदार्थ (इद्धासः) दीप्त होने से (पृथक्) पृथक्-२ (समदृक्षत) देख पड़ते हैं, यद्यपि सब समान ही हैं । पुनः (उषसाम्+केतवः+इव) प्रातःकाल के ये सब ज्ञापक हैं अथवा उष-दाहे । दाह के सूचक हैं ॥५ ॥

    भावार्थ

    जिस ईश्वर के उत्पादित ये सूर्य्यादि अग्नि जगत् में उपकार कर रहे हैं, उसकी उपासना करो । उसकी परम विभूतियाँ देखो । तब ही उस प्रभु को पहिचान सकते हो ॥५ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    नाना स्वतन्त्र जीवों का अग्नियों के तुल्य निरूपण।

    भावार्थ

    ( एते त्ये ) ये वह (अग्नयः) अभिवत् स्वयं प्रकाश जीवगण ( इद्धसः ) प्रदीप्त या प्रज्वलित अग्नियों के समान, और ( उषसाम् इव केतवः ) उपा, प्रभात कालों के ज्ञापक ध्वजाओं वा किरणों के समान ( उषसाम् ) नाना कामनाओं के ( केतवः ) प्रकट करने वाले ( वृथक् ) पृथक् २ ही (सम्-अदृक्षत) अच्छी प्रकार विवेकपूर्वक दिखाई देते वा देखते हैं। पूर्व मन्त्र में बतलाया था कि इन जीवों के सबके अपने यत्न पृथक हैं, इसमें बतलाया कि इनकी इच्छाएं भी भिन्न हैं। वे एक महान् आत्मा के अंश नहीं प्रत्युत सम्यग् दर्शन द्वारा भी पृथक् २ ही हैं। इत्येकोनत्रिंशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विरूप आङ्गिरस ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः—१, ९—१२, २२, २६, २८, २९, ३३ निचृद् गायत्री। १४ ककुम्मती गायत्री। ३० पादनिचृद् गायत्री॥ त्रयस्त्रिंशदृचं सूक्तम्॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    उषसाम् केतवः इव

    पदार्थ

    [१] (एते) = ये (त्ये) = वे प्रसिद्ध (अग्नयः) = यज्ञाग्नियाँ (वृथक्) = पृथक्-पृथक् स्थानों में (इद्धास:) = समिद्ध हुई - हुई (समदृक्षत) = दिखती हैं। (सर्वत्र) = सब घरों में यज्ञाग्नियाँ दीप्त हो रही हैं। [२] ये यज्ञाग्नियाँ (उषसां) = उषाकालों की (केवतः इव) = पताकाएँ सी हैं उषाकालों की यह प्रज्ञापक हैं, सूचना देनेवाली हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ:- उषाकालों में सर्वत्र होते हुए यज्ञ अग्नियों द्वारा उषा का प्रज्ञापन कर रहे हैं।

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top