ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 43/ मन्त्र 13
उ॒त त्वा॑ भृगु॒वच्छु॑चे मनु॒ष्वद॑ग्न आहुत । अ॒ङ्गि॒र॒स्वद्ध॑वामहे ॥
स्वर सहित पद पाठउ॒त । त्वा॒ । भृ॒गु॒ऽवत् । शु॒चे॒ । म॒नु॒ष्वत् । अ॒ग्ने॒ । आ॒ऽहु॒त॒ । अ॒ङ्गि॒र॒स्वत् । ह॒वा॒म॒हे॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
उत त्वा भृगुवच्छुचे मनुष्वदग्न आहुत । अङ्गिरस्वद्धवामहे ॥
स्वर रहित पद पाठउत । त्वा । भृगुऽवत् । शुचे । मनुष्वत् । अग्ने । आऽहुत । अङ्गिरस्वत् । हवामहे ॥ ८.४३.१३
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 43; मन्त्र » 13
अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 31; मन्त्र » 3
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अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 31; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
service, pure and unsullied by nature, like brilliant scholars and scientists who burn off superstition and dispel darkness, like dedicated humans, and like lovers of the breath of life and soma of joy, we invoke and invite you for the gifts of light and life.
मराठी (1)
भावार्थ
भृगु = भ्रस्ज पाके, जो तप, कठीण व्रत इत्यादीमध्ये पारंगत असेल तो भृगु (मनु=मन अवबोधने) जो मनन करण्यात निपुण असेल, जो सर्व विषयांना चांगल्या प्रकारे समजत असेल. अङ्गिर = हे सर्व जग परमेश्वराच्या अङ्गाप्रमाणे आहे त्यामुळे त्याला अङ्गी म्हटले जाते. त्या अङ्गीमध्ये जो सदैव रत असेल त्याला अङ्गीरा म्हटले जाते किंवा जो अङ्गाचा रस असेल, जो अग्नेय विद्येत निपुण असेल, जो अग्नित्वाला समजणारा व समजाविणारा असेल इत्यादी अनेक अर्थ पूर्वीपासून या शब्दाचे केले गेलेले आहेत. ॥१३॥
संस्कृत (1)
विषयः
N/A
पदार्थः
हे शुचे ! पवित्रतम हे अग्ने सर्वगतिप्रद ! हे आहुत=पूजित हे ईश ! उत । त्वा । भृगुवत् । मनुष्वत् । तथा अङ्गिरस्वत् । वयम् । हवामहे ॥१३ ॥
हिन्दी (3)
विषय
N/A
पदार्थ
(शुचे) हे परमपवित्र (अग्ने) हे सबमें गति देनेवाले (आहुत) हे पूज्यतम विश्वेश्वर ! (उत) और (त्वा) आपको (भृगुवत्) भृगु के समान (मनुष्वत्) मनु के समान और (अङ्गिरस्वत्) अङ्गिरा के समान हम उपासकगण (हवामहे) पूजते हैं ॥१३ ॥
टिप्पणी
भृगु=भ्रस्ज पाके । जो जन तपस्या कठिन व्रत आदि में परिपक्व हो, वह भृगु । मनु=मन अवबोधने । जो मनन करने में निपुण हो, जो सब विषयों को अच्छी तरह समझता हो । अङ्गिरा=जो सदा परमात्मा का यह सम्पूर्ण जगत् अङ्गवत् है, अतः उसको अङ्गी कहते हैं, उस अङ्गि में जो रत हो, वह अङ्गिराः । अथवा जो अङ्गों का रस हो, जो आग्नेय विद्या में निपुण हो, जो अग्नितत्त्व को समझने समझानेवाला हो, इत्यादि अनेक अर्थ इस शब्द के प्राचीन करते आए हैं ॥१३ ॥
विषय
प्रकाशमय, दुःखनाशन, पापनिवारक प्रभु की उपासना।
भावार्थ
( उत ) और हे ( शुचे ) प्रकाशस्वरूप ! शुद्ध ! पापों के दहन करने हारे ! हे ( अग्ने ) ज्ञानमय ! हे ( आहुत ) सर्वात्मना स्वीकृत हम लोग ( भृगुवत् ) पापों को दग्ध करने में समर्थ तपस्वी जनों के समान, और ( मनुष्वत् ) मननशील ज्ञानी पुरुषों के समान और ( अंगिरस्वत् ) देह में प्राणोंवत् अंगारों के समान तेजस्वी ज्ञानी पुरुषों के समान होकर ( त्वा हवामहे ) तुझ से प्रार्थना करते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विरूप आङ्गिरस ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः—१, ९—१२, २२, २६, २८, २९, ३३ निचृद् गायत्री। १४ ककुम्मती गायत्री। ३० पादनिचृद् गायत्री॥ त्रयस्त्रिंशदृचं सूक्तम्॥
विषय
भृगुवत्, मनुष्वत्, अङ्गिरस्वत्
पदार्थ
[१] (उत्) = और हे (शुचे) = पूर्ण पवित्र व दीप्त, (आहुत) = समन्तात् दानोंवाले (अग्ने) = अग्रणी प्रभो ! हम (त्वा) = आपको (हवामहे) = पुकारते हैं । [२] प्रभु की आराधना हम (भृगुवत्) = भृगु की तरह करते हैं। तपस्या की अग्नि में अपने को परिपक्व करनेवाला 'भृगु' है। (मनुष्वत्) = मनुज् की तरह हम प्रभु का आराधन करते हैं। विचारशील-अपने ज्ञान को बढ़ानेवाला व्यक्ति 'मनुः ' है। (अंगिरस्वत्) = अंगिरा की तरह हम प्रभुपूजन करते हैं। अंगिरा वह व्याक्ति है जो अपने अंग-प्रत्यंग को रसमय बनाता है।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु का उपासक तपस्वी (भृगु) विचारशील (मनुष्) व स्वस्थ (अंगिरस् ) होता है।
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