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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 43 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 43/ मन्त्र 16
    ऋषिः - विरूप आङ्गिरसः देवता - अग्निः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    अग्ने॒ भ्रात॒: सह॑स्कृत॒ रोहि॑दश्व॒ शुचि॑व्रत । इ॒मं स्तोमं॑ जुषस्व मे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अग्ने॑ । भ्रा॒त॒रिति॑ । सहः॑ऽकृत । रोहि॑त्ऽअश्व । शुचि॑ऽव्रत । इ॒मम् । स्तोम॑म् । जु॒ष॒स्व॒ । मे॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्ने भ्रात: सहस्कृत रोहिदश्व शुचिव्रत । इमं स्तोमं जुषस्व मे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अग्ने । भ्रातरिति । सहःऽकृत । रोहित्ऽअश्व । शुचिऽव्रत । इमम् । स्तोमम् । जुषस्व । मे ॥ ८.४३.१६

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 43; मन्त्र » 16
    अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 32; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Agni, sustainer of the world as a brother and master, mighty creator and performer, rider of the red flames of fire and the sun, lord and protector of the unsullied laws of nature, pray accept this holy song of mine with love and respond with the gift of your grace.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    ‘सहस्कृत’ ‘रोहिदश्व’ इत्यादी पदे आग्नेय सूक्तात अधिक येतात. ईश्वर व भौतिक अग्नी असे दोन अर्थ होतात. जगातही अशी पुष्कळ उदाहरणे आहेत. ईश्वराच्या बाजूने सहस=संसार किंवा बल, बलदाता तोच आहे. अग्नीच्या बाजूने केवळ बल. या प्रकारे रोहित इत्यादी पदांचाही भिन्न भिन्न अर्थ केला पाहिजे. ॥१६॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    परमात्मा सखास्तीति बहुशः प्रतिपाद्यते । अत्र भ्रातृत्वमपि तस्मिन्नारोप्यते ।

    पदार्थः

    हे भ्रातः=जीवानां भरणकर्त्तः ! हे सहस्कृत=सहसां जगतां कर्तः ! हे रोहिदश्व=इदं जगदेव रोहित् उत्पत्तिमत् तदेव अश्वोऽश्ववद्वाहनं यस्य । तत्सम्बोधने । हे रोहिदश्व=संसाराश्वारूढ ! हे शुचिव्रत=शुद्धनियम ! हे अग्ने=परमात्मन् ! मे=ममोपासकस्य । इमं स्तोमं जुषस्व ॥१६ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    परमात्मा सखा है, यह बारंबार कहा जाता है । यहाँ उसमें भ्रातृत्व का भी आरोप करते हैं ।

    पदार्थ

    (भ्रातः) हे जीवों के भरणपोषणकर्ता (सहस्कृत) हे जगत्कर्ता (रोहिदश्व) हे संसाराश्वारूढ़ (शुचिव्रत) हे शुद्ध नियमविधायक (अग्ने) परमात्मन् ! (मे) मेरे (इमम्+स्तोमम्) इस स्तोत्र को (जुषस्व) कृपया ग्रहण कीजिये ॥१६ ॥

    टिप्पणी

    सहस्कृत, रोहिदश्व आदि पद आग्नेय सूक्तों में अधिक आते हैं । ईश्वर और भौतिक अग्नि इन दोनों पक्षों में दो अर्थ होंगे । लोक में भी ऐसे बहुत उदाहरण आते हैं । ईश्वर पक्ष में सहस्=संसार अथवा बल, बलदाता भी वही है अग्नि पक्ष में केवल बल । इसी प्रकार रोहित आदि पदों का भी भिन्न-भिन्न अर्थ करना चाहिये ॥१६ ॥

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    विषय

    भ्रातृवत् शुद्धहृदय प्रभु।

    भावार्थ

    हे (अग्ने ) तेजस्विन् ! हे (भ्रातः) भ्रातृवत् स्नेहकारिन्, समस्त जीवों के भरण पोषण करनेहारे ! हे (सहस्कृत) सर्ववशकारी बल से सम्पन्न, हे (रोहित-अश्व) रक्तवर्ण अश्व अर्थात् व्यापक तेज वाले, वेगवान् सूर्यादि पिण्डों के स्वामिन् ! हे ( शुचि-व्रत ) शुद्धव्रत ! नियमकारिन् ! विद्वन् ! तू ( मे ) मेरे ( इमं स्तोमं जुषस्व ) इस स्तुतिवचन को प्रेमपूर्वक स्वीकार कर।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विरूप आङ्गिरस ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः—१, ९—१२, २२, २६, २८, २९, ३३ निचृद् गायत्री। १४ ककुम्मती गायत्री। ३० पादनिचृद् गायत्री॥ त्रयस्त्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    रोहिदश्व-शुचिव्रत

    पदार्थ

    [१] हे (अग्ने) = परमात्मन्! आप (मे) = मेरे (इमं स्तोमं) = इस स्तोत्र को [स्तवन को] (जुषस्व) = सेवन करिए। यह मेरे से किये जानेवाला स्तोत्र आपके लिए प्रिय हो। [२] (भ्रातः) = हे प्रभो! आप ही कार्यभार का वहन करनेवाले हैं। (सहस्कृत) = आप ही बल को उत्पन्न करनेवाले हैं-आपसे प्राप्त कराई गई शक्ति से ही हम सब कर्तव्यों का पालन कर पाते हैं। (रोहिदश्व) = आप उन्नतिशील इन्द्रियाश्वोंवाले हैं और (शुचिव्रत) = पवित्र व्रतोंवाले हैं। आप सशक्त इन्द्रियों व पवित्र कर्मों को हमें प्राप्त कराते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम प्रभु का स्तवन करें। प्रभु हमारे लिए शक्ति को प्राप्त कराके हमें कर्तव्यभार के वहन के योग्य बनाते हैं। उन्नत इन्द्रियों को प्राप्त कराके प्रभु ही हमें पवित्र व्रतोंवाला करते हैं।

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