ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 43/ मन्त्र 18
तुभ्यं॒ ता अ॑ङ्गिरस्तम॒ विश्वा॑: सुक्षि॒तय॒: पृथ॑क् । अग्ने॒ कामा॑य येमिरे ॥
स्वर सहित पद पाठतुभ्य॑म् । ताः । अ॒ङ्गि॒रः॒ऽत॒म॒ । विश्वाः॑ । सु॒ऽक्षि॒तयः॑ । पृथ॑क् । अग्ने॑ । कामा॑य । ये॒मि॒रे॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
तुभ्यं ता अङ्गिरस्तम विश्वा: सुक्षितय: पृथक् । अग्ने कामाय येमिरे ॥
स्वर रहित पद पाठतुभ्यम् । ताः । अङ्गिरःऽतम । विश्वाः । सुऽक्षितयः । पृथक् । अग्ने । कामाय । येमिरे ॥ ८.४३.१८
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 43; मन्त्र » 18
अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 32; मन्त्र » 3
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अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 32; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Agni, lord of highest light and giver of the breath of life, all people of the entire world pray and approach you, all for the fulfilment of their ambition and desire.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्माच एक पूज्य, स्तुत्य, ध्येय व गेय आहे, ही शिकवण यावरून मिळते. ॥१८॥
संस्कृत (1)
विषयः
N/A
पदार्थः
हे अङ्गिरस्तम=अङ्गिरसां देवानां मध्ये अतिशय श्रेष्ठ अग्ने ! कामाय=स्वस्वमनोरथसिद्ध्यर्थम् । विश्वाः=सर्वाः । ताः । सुक्षितयः=प्रजाः । तुभ्यं । पृथक्-२ । येमिरे=स्तुवन्ति ॥१८ ॥
हिन्दी (3)
विषय
N/A
पदार्थ
(अङ्गिरस्तम) हे देवों में अतिशय श्रेष्ठ (अग्ने) परमात्मन् ! (कामाय) निज-२ मनोरथ की सिद्धि के लिये (विश्वाः) समस्त (ताः) वे (सुक्षितयः) प्रजाएँ (तुभ्यम्) तेरी ही (पृथक्) पृथक्-२ (येमिरे) स्तुति करती हैं ॥१८ ॥
भावार्थ
परमात्मा ही एक पूज्य, स्तुत्य, ध्येय और गेय है, यह शिक्षा इससे देते हैं ॥१८ ॥
विषय
मुख्य प्राणवत् प्रभु।
भावार्थ
हे ( अंगिरस्तम ) प्राणों में मुख्य प्राणवत् वा आत्मवत् ! सर्वश्रेष्ठ ! हे (अग्ने ) तेजस्विन् ! ( ताः विश्वाः सुक्षितयः ) वे समस्त उत्तम प्रजाएं ( कामाय तुभ्यं ) कामना करने योग्य, कान्तिमान् तेरे लिये ही अपने को ( पृथक ) पृथक् २ दलों में ( नि येमिरे ) नियंत्रित करते हैं, तुझे ही प्राप्त करने के लिये उत्तम जन अपने को वर्ण आश्रमादि की व्यवस्थाओं में बांधते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विरूप आङ्गिरस ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः—१, ९—१२, २२, २६, २८, २९, ३३ निचृद् गायत्री। १४ ककुम्मती गायत्री। ३० पादनिचृद् गायत्री॥ त्रयस्त्रिंशदृचं सूक्तम्॥
विषय
इन्द्रिय निरोध
पदार्थ
[१] हे (अग्ने) = परमात्मन् ! (अंगिरस्तम) = हमारे अंग-प्रत्यंग में रस का सञ्चार करनेवाले प्रभो ! (ताः विश्वाः) = वे सब (सुक्षितयः) = उत्तम निवास व गतिवाली-स्वस्थशरीर में स्वस्थ गतिवाली-प्रजाएँ (कामाय तुभ्यं) = कामना करने योग्य [कान्त] आपकी प्राप्ति के लिए पृथक्-पृथक् विषयों से पृथक् करके (येमिरे) = इन्द्रियों का नियमन करती हैं। [२] इन्द्रिय निरोध ही प्रभुप्राप्ति का मार्ग है, प्रभु प्राप्ति के मार्ग पर चलनेवाला व्यक्ति स्वस्थ बनता है व स्वस्थ गतिवाला होता है।
भावार्थ
भावार्थ- हम स्वस्थ गतिवाले बनकर प्रभुप्राप्ति के लिए इन्द्रियों का निरोध करनेवाले बनें।
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