ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 43/ मन्त्र 31
अ॒ग्निं म॒न्द्रं पु॑रुप्रि॒यं शी॒रं पा॑व॒कशो॑चिषम् । हृ॒द्भिर्म॒न्द्रेभि॑रीमहे ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒ग्निम् । म॒न्द्रम् । पु॒रु॒ऽप्रि॒यम् । शी॒रम् । पा॒व॒कऽशो॑चिषम् । हृ॒त्ऽभिः । म॒न्द्रेभिः॑ । ई॒म॒हे॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्निं मन्द्रं पुरुप्रियं शीरं पावकशोचिषम् । हृद्भिर्मन्द्रेभिरीमहे ॥
स्वर रहित पद पाठअग्निम् । मन्द्रम् । पुरुऽप्रियम् । शीरम् । पावकऽशोचिषम् । हृत्ऽभिः । मन्द्रेभिः । ईमहे ॥ ८.४३.३१
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 43; मन्त्र » 31
अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 35; मन्त्र » 1
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अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 35; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
With songs of heartiest love and joy, with enthusiasm, we invoke and adore Agni, blissful giver of happiness, dear to all people, omnipresent in existence and pure refulgent sanctifier of life.
मराठी (1)
भावार्थ
सर्वांनी त्याच देवाची पूजा, उपासना करावी, इतराची नव्हे. ॥३१॥
संस्कृत (1)
विषयः
N/A
पदार्थः
हे मनुष्याः ! वयम् । मन्द्रं=मादयितारम् आनन्दयितारम् । पुरुप्रियं=बहुप्रियम् । शीरं=सर्वेषु पदार्थेषु शयितारम् व्यापकमित्यर्थः । पावकशोचिषम्=पवित्रतेजस्कम् । ईदृशम् । अग्निम् । हृद्भिः=हृदयंगमैः । मन्द्रैः=आनन्दप्रदैः स्तोत्रैः । ईमहे=याचामहे प्रार्थयामहे यूयमपि तमेव प्रार्थयध्वम् ॥३१ ॥
हिन्दी (3)
विषय
N/A
पदार्थ
हे मनुष्यों ! हम उपासकगण (मन्द्रम्) आनन्दविधायक (पुरुप्रियम्) बहुप्रिय (शीरम्) सब पदार्थों में शयनशील अर्थात् व्यापक और (पावकशोचिषम्) पवित्र तेजोयुक्त (अग्निम्) उस परमदेव से (हृद्भिः) मनोहर और (मन्द्रैः) आनन्दप्रद स्तोत्रों द्वारा (ईमहे) प्रार्थना करते हैं, आप भी उसी की प्रार्थना कीजिये ॥३१ ॥
भावार्थ
सब कोई उसी देव की पूजा उपासना करें, अन्य की नहीं ॥३१ ॥
विषय
आत्मा के तीन रूप।
भावार्थ
हम ( मन्द्रं ) स्तुत्य, आनन्दप्रद ( पुरु-प्रियं ) बहुतों के प्रिय, इन्द्रियों को आत्मा के तुल्य प्रजाओं को प्रसन्न करने वाले ( पावक-शोचिषम् ) पवित्रकारक तेज वाले, (शीरं) व्यापक, (अग्निं ) अग्निवत् प्रकाशक को हम ( मन्द्रेभिः ) हर्षयुक्त ( हृद्भिः ) हृदयों से ( ईमहे ) प्रार्थना, स्तुति करें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विरूप आङ्गिरस ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः—१, ९—१२, २२, २६, २८, २९, ३३ निचृद् गायत्री। १४ ककुम्मती गायत्री। ३० पादनिचृद् गायत्री॥ त्रयस्त्रिंशदृचं सूक्तम्॥
विषय
'मन्द्र, पुरुप्रिय, शीर, पावकशोचिष्' अग्नि
पदार्थ
[१] सबसे ऊँचा तप 'मनः प्रसाद' है। सो करते हैं कि (मन्द्रेभिः) = सदा आनन्द में रहनेवाले (हृद्भिः) = हृदयों से हम (अग्निं) = अग्रणी प्रभु की (ईमहे) = [याचामहे] प्रार्थना करते हैं। [२] उस प्रभु का आराधन करते हैं जो (मन्द्रं) = सदा आनन्दमय हैं। (पुरुप्रियं) = पालक व पूरक व प्रीणित करनेवाले हैं। (शीरं) = सब बुराइयों का संहार करनेवाले हैं। (पावकशोचिषम्) = पवित्र दीप्तिवाले हैं। इनका आराधन करते हुए हम भी ऐसा ही बनते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- हम प्रसादयुक्त हृदय से उस आनन्दमय- बुराइयों को समाप्त करनेवाले - पवित्र दीप्ति वाले प्रभु का उपासन करते हैं।
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