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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 43 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 43/ मन्त्र 11
    ऋषिः - विरूप आङ्गिरसः देवता - अग्निः छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    उ॒क्षान्ना॑य व॒शान्ना॑य॒ सोम॑पृष्ठाय वे॒धसे॑ । स्तोमै॑र्विधेमा॒ग्नये॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒क्षऽअ॑न्नाय । व॒शाऽअ॑न्नाय । सोम॑ऽपृष्ठाय । वे॒धसे॑ । स्तोमैः॑ । वि॒धे॒म॒ । अ॒ग्नये॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उक्षान्नाय वशान्नाय सोमपृष्ठाय वेधसे । स्तोमैर्विधेमाग्नये ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उक्षऽअन्नाय । वशाऽअन्नाय । सोमऽपृष्ठाय । वेधसे । स्तोमैः । विधेम । अग्नये ॥ ८.४३.११

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 43; मन्त्र » 11
    अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 31; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    With songs of adoration, let us offer honour and worship to Agni and develop the science of fire and energy which provides life and sustenance to the cow and the sun and all dependent forms of life in existence and bears and brings the soma of health and joy for all.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जो सर्वांचा धाता, विधाता व ईश आहे. त्याची उपासना पूर्ण भक्तिने करा. ॥११॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    इदानीमग्निवाच्येश्वर एव पूज्योऽस्तीति प्रदर्श्यते ।

    पदार्थः

    वयमुपासकाः । अग्नये=सर्वव्यापकाय महेश्वराय । स्तोमैः=स्तोत्रैः । विधेम=परिचरेम । कीदृशाय । उक्षान्नाय=उक्षणां=धनवर्षकाणां सूर्य्यादीनामपि । अन्नाय=अन्नवत् पोषकाय । पुनः । वशान्नाय=वशानां वशीभूतानां समस्तानां जगताम् । अन्नाय अन्नवत्पोषकाय । पुनः । वेधसे=विधात्रे=रचयित्रे इत्यर्थः ॥११ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    इस समय अग्निवाच्य ईश्वर ही पूज्य है, यह दिखलाते हैं ।

    पदार्थ

    हम उपासक (अग्नये) उस सर्वव्यापी जगदीश्वर की (स्तोमैः) विविध स्तोत्रों और मन से (विधेम) उपासना करें, जो ईश्वर (उक्षान्नाय) धनवर्षक सूर्य्यादिकों के भी अन्नवत् पोषक है, पुनः (वशान्नाय) स्ववशीभूत समस्त जगतों का भी अन्नवत् धारक और पोषक है, पुनः (वेधसे) सबके रचयिता भी हैं । ऐसे जगदीश्वर की उपासना करें ॥११ ॥

    भावार्थ

    जो सबका धाता विधाता ईश है, उसकी उपासना सर्व भाव से करो ॥११ ॥

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    विषय

    जीव और परम आत्मा का स्वरूप।

    भावार्थ

    हम ( उक्षान्नाय ) वीर्यसेचन में समर्थ अन्न खाने वाले और ( वशान्नाय ) यथेच्छ अन्न के भोगने वाले, ( सोम-पृष्ठाय ) वीर्य स्वरूप ( अग्ने ) अग्निवत् आकाशस्वरूप आत्मा का ( स्तोमैः ) वेद मन्त्रों द्वारा ( विधेम ) प्रतिपादन और ज्ञान करें। ( २ ) ‘उक्षाः’ जल सेचक, नाना लोकों को वहन करने वाले, सूर्यादि और ‘वशा’ सर्व वशकारिणी शक्ति का अन्नवत् उपभोग करने वाले ( सोम-पृष्ठाय ) सर्वप्रेरक, परमैश्वर्यवान् ( वेधसे ) जगत् विधाता ( अग्नये ) अग्निवत् तेजोमय परमेश्वर की हम ( स्तोमैः ) स्तुति वचनों से ( विधेम ) परिचर्या और स्तुति - उपासना करें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विरूप आङ्गिरस ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः—१, ९—१२, २२, २६, २८, २९, ३३ निचृद् गायत्री। १४ ककुम्मती गायत्री। ३० पादनिचृद् गायत्री॥ त्रयस्त्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    उक्षान्न+वशान्न [यज्ञाग्नि]

    पदार्थ

    [१] (वेधसे) = सब इष्ट कामनाओं को पूर्ण करनेवाले [इष्ट कामघुक्] (अग्नये) = यज्ञाग्नि के लिए (स्तोमैः) = स्तुति मन्त्रों के साथ (विधेम)= पूजन करें। अग्नि का पूजन यही है कि इसमें उत्तम ओषधियों व घृत की आहुति दी जाए। ये सब औषध द्रव्य सूक्ष्मरूप में होकर वायुमण्डल को रोगकृमिशून्य करते हैं और श्वासवायु के साथ शरीर में जाकर हमें नीरोग बनाते हैं। [२] उस अग्नि का हम पूजन करते हैं जो (उक्षान्नाय) = 'उक्षां नामक' ओषधिरूप अन्नवाला है। इसी प्रकार (वशान्नाय) = वश्य अर्थात् पृथिवी से उत्पन्न ओषधियाँ जिसके अन्न हैं और (सोमपृष्ठाय) = कर्पूर जिसका आधार बनता है। कर्पूर द्वारा जो प्रज्ज्वलित की जाती है।

    भावार्थ

    भावार्थ:- कर्पूर द्वारा इसे प्रज्ज्वलित करें। इस प्रकार यह अग्निहोत्र हमारी इष्टकामनाओं को पूर्ण करेगा।

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