ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 43/ मन्त्र 4
हर॑यो धू॒मके॑तवो॒ वात॑जूता॒ उप॒ द्यवि॑ । यत॑न्ते॒ वृथ॑ग॒ग्नय॑: ॥
स्वर सहित पद पाठहर॑यः । धू॒मऽके॑तवः । वात॑ऽजूताः । उप॑ । द्यवि॑ । यत॑न्ते । वृथ॑क् । अ॒ग्नयः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
हरयो धूमकेतवो वातजूता उप द्यवि । यतन्ते वृथगग्नय: ॥
स्वर रहित पद पाठहरयः । धूमऽकेतवः । वातऽजूताः । उप । द्यवि । यतन्ते । वृथक् । अग्नयः ॥ ८.४३.४
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 43; मन्त्र » 4
अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 29; मन्त्र » 4
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अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 29; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
The fire, the sun, the lightning and the falling stars moved around by cosmic energy, all receptive and transmissive in their own orbit on earth, in heaven and across the skies, all giving the light and shade and fragrance of their nature and character in their own way, roam around in space as versions of Agni.
मराठी (1)
भावार्थ
त्याची शक्ती महान आहे. ज्यामुळे सूर्य इत्यादी गोलात कार्य होत आहे. हे माणसांनो! तुम्ही त्याची (ईश्वराची) पूजा करा. ॥४॥
संस्कृत (1)
विषयः
N/A
पदार्थः
हे भगवन् ! तवोत्पादिताः । इमे । अग्नयः=सूर्य्यविद्युदग्नयः । पृथक्=पृथक्-२ यतन्ते स्वस्वकार्ये पृथक्-२ परिश्राम्यन्ति । कीदृशास्ते । हरयः=हरणशीलाः पुनः । धूमकेतवः= धूमध्वजाः । पुनः । वातजूताः=वायुप्रेरिताः । उपद्यवि । केचन द्युलोके । केचन अन्तरिक्षे । केचन पृथिव्यां यतन्ते इत्यन्वयः ॥४ ॥
हिन्दी (3)
विषय
N/A
पदार्थ
हे भगवन् ! आपके उत्पादित ये (अग्नयः) सूर्य्य, विद्युत्, अग्नि और चन्द्र आदि सर्वजगत् (पृथक्) पृथक्-पृथक् (यतन्ते) स्व-स्व कार्य्य में यत्न कर रहे हैं । वे कैसे हैं−(हरयः) परस्पर हरणशील, परस्परोपकारक, पुनः (धूमकेतवः) जिनके चिह्न धूम हैं, पुनः (वातजूताः) जो स्थूल और सूक्ष्म वायुओं से प्रेरित होते हैं, पुनः (उप+द्यवि) कोई पदार्थ द्युलोक में, कोई पृथिवी पर और कोई मध्यलोक में स्व-स्व कार्य में लगे हुए हैं ॥४ ॥
भावार्थ
उसकी महती शक्ति है, जिससे सूर्य्यादि लोकों में भी कार्य्य हो रहे हैं, हे मनुष्यों ! आप उसी की पूजा कीजिये ॥४ ॥
विषय
अग्निवत् प्रभु की विभूतियां। इसी प्रकार स्वतन्त्र जीवगण की सत्ता का वर्णन।
भावार्थ
जिस प्रकार ( अग्नयः ) अग्नियें ( हरयः ) पीतवर्ण ( धूमकेतवः ) धूम की ध्वजाओं से युक्त होकर ( वात-जूताः ) वायु से प्रेरित होकर, ( द्यवि ) आकाश में ( वृथक् = पृथक् उपयतन्ते ) अलग २ प्रज्वलित होते हैं उसी प्रकार ( अग्नयः ) अग्नि के बने सूर्यादि लोक और ( धूम-केतवः ) धूम की ध्वजा से युक्त धूमकेतुगण, ( वात-जूता ) वायु वेग से प्रेरित होकर आकाश में अलग २ घूम रहे हैं इसी प्रकार ( अग्नयः ) अग्निवत् स्वप्रकाश विद्वान्, ( हरयः ) जीवगण, ( धूम-केतवः ) पाप को दूर करने में समर्थ ज्ञान से सम्पन्न होकर (वात-जूताः ) प्राण वायु से प्रेरित होकर ( द्यवि ) उस प्रकाशस्वरूप प्रभु को लक्ष्य कर उसके आश्रय, पृथक् २ मोक्ष प्राप्ति का यत्न करते हैं।
टिप्पणी
‘पृथगग्नयः’ इति वाजसनेयिनां पाठः।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विरूप आङ्गिरस ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः—१, ९—१२, २२, २६, २८, २९, ३३ निचृद् गायत्री। १४ ककुम्मती गायत्री। ३० पादनिचृद् गायत्री॥ त्रयस्त्रिंशदृचं सूक्तम्॥
विषय
अग्नयः [यज्ञाग्नियाँ]
पदार्थ
[१] (अग्नयः) = यज्ञों की अग्नियाँ (हरयः) = हम सबके कष्टों का हरण करनेवाली होती हुई (वृथक्) = पृथक्-पृथक् स्थानों में (उप द्यवि) = अन्तरिक्षलोक में (यतन्ते) = रोगकृमिनाश के लिए यत्नशील होती हैं। [२] ये अग्नियाँ (धूमकेतवः) = धूमरूप ध्वजावाली हैं और (वातजूताः) = वायु द्वारा प्रेरित होती है। वायु इनका उद्बोधक होता है।
भावार्थ
भावार्थ-यज्ञाग्नियाँ अन्तरिक्ष में उठती हुई रोगकृमिविनाश द्वारा यज्ञशील पुरुषों के कष्टों का अपहरण करती हैं।
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