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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 43 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 43/ मन्त्र 22
    ऋषिः - विरूप आङ्गिरसः देवता - अग्निः छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    तमी॑ळिष्व॒ य आहु॑तो॒ऽग्निर्वि॒भ्राज॑ते घृ॒तैः । इ॒मं न॑: शृणव॒द्धव॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तम् । ई॒ळि॒ष्व॒ । यः । आऽहु॑तः । अ॒ग्निः । वि॒ऽभ्राज॑ते । घृ॒तैः । इ॒मम् । नः॒ । शृ॒ण॒व॒त् । हव॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तमीळिष्व य आहुतोऽग्निर्विभ्राजते घृतैः । इमं न: शृणवद्धवम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तम् । ईळिष्व । यः । आऽहुतः । अग्निः । विऽभ्राजते । घृतैः । इमम् । नः । शृणवत् । हवम् ॥ ८.४३.२२

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 43; मन्त्र » 22
    अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 33; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Worship him who, lord of light and omniscience, invoked and served with ghrta and fragrance, shines and rises in the vedi and the heart. May the lord listen and accept this song of invocation for us.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्मा चेतन देव आहे, त्यामुळे तो आमची प्रार्थना, स्तुती ऐकतो. इतर सूर्य वगैरे देव जड आहेत. त्यामुळे ते आमची प्रार्थना ऐकू शकत नाहीत. त्यासाठी केवळ ईश्वराचीच स्तुती करणे हे आपले कर्तव्य आहे. ॥२२॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    N/A

    पदार्थः

    हे विद्वन् ! तमेवाग्निवाच्यमीशम् । ईळिष्व=स्तुहि । योऽग्निः । घृतैः=घृतैरिव विविधस्तवैः । आहुतः=पूजितः सन् उपासकस्य हृदि । विभ्राजते=प्रकाशते । यश्च । नोऽस्माकम् । इमं हवम्=आह्वानम् । शृणवत्=शृणोति च ॥२२ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    N/A

    पदार्थ

    हे विद्वन् ! (त्वम्+ईळिष्व) उस परमात्मा की स्तुति करो (यः+अग्निः) जो अग्निवाच्य ईश्वर (घृतैः) घृत के समान विविध स्तोत्रों से (आहुतः) पूजित होकर उपासकों के हृदय में (विभ्राजते) प्रकाशित होता है और जो (नः) हम मनुष्यों के (इमम्+हवम्) इस आह्वान, स्तुति और निवेदन को (शृणवत्) सुनता है ॥२२ ॥

    भावार्थ

    जिस कारण परमात्मा चेतन देव है, अतः वह हमारी प्रार्थना स्तुति को सुनता है । अन्य सूर्य्यादि देव जड़ हैं, अतः वे हमारी प्रार्थना को नहीं सुन सकते । इस कारण केवल ईश्वर की ही स्तुति कर्त्तव्य है ॥२२ ॥

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    विषय

    प्रकाश स्वरूप प्रभु।

    भावार्थ

    जिस प्रकार ( आहुत: अग्निः ) आहुति किया अग्नि ( घृतैः ) घृतों से ( विभ्राजते ) विशेष रूप से प्रकाशित होता है उसी प्रकार जो वह ( अग्निः ) तेजःस्वरूप, स्वप्रकाश प्रभु ( घृतैः ) तेजोमय आत्माओं से ( आ-हुतः ) बुलाया, पुकारा और प्रार्थित किया जाकर ( वि-भ्राजते ) विशेष रूप से हृदयों में प्रकाशित होता है ( तम् ईडिष्व ) तू उसकी ही स्तुति किया कर। क्योंकि वही ( नः ) हमारी ( हवम् शृणवत्) उस स्तुति को श्रवण करता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विरूप आङ्गिरस ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः—१, ९—१२, २२, २६, २८, २९, ३३ निचृद् गायत्री। १४ ककुम्मती गायत्री। ३० पादनिचृद् गायत्री॥ त्रयस्त्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    अग्निः विभ्राजते घृतैः

    पदार्थ

    [१] (तम्) = उस प्रभु को (ईडिष्व) =स्तुत कर (यः) = जो (आहुतः) = समन्तात् दानोंवाला (अग्निः) = अग्रणी प्रभु (घृतैः) = ज्ञानदीप्तियों व मल के क्षरण से [घृ क्षरणदीप्त्योः] हृदय की निर्मलता से (विभ्राजते) = चमक उठते हैं। हम ज्ञान को बढ़ाएँ मानसमलों को दूर करें तो अवश्य प्रभु के प्रकाश को देखेंगे। [२] वे प्रभु (नः) = हमारी (इमं हवं) = इस पुकार को (शृणवत्) = सुनें। प्रभु उसी पुरुष की पुकार को सुनते हैं जो अपने जीवन में घृत-ज्ञानदीप्ति व मलक्षरण [नैर्मल्य] को धारण करता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु के दान चारों ओर विद्यमान हैं। इन प्रभु को हम ज्ञानदीप्ति व निर्मलता के द्वारा देख पाते हैं। ऐसा करने पर ही प्रभु हमारी पुकार को सुनते हैं।

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