ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 43/ मन्त्र 15
स त्वं विप्रा॑य दा॒शुषे॑ र॒यिं दे॑हि सह॒स्रिण॑म् । अग्ने॑ वी॒रव॑ती॒मिष॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठसः । त्वम् । विप्रा॑य । दा॒शुषे॑ । र॒यिम् । दे॒हि॒ । स॒ह॒स्रिण॑म् । अग्ने॑ । वी॒रऽव॑तीम् । इष॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
स त्वं विप्राय दाशुषे रयिं देहि सहस्रिणम् । अग्ने वीरवतीमिषम् ॥
स्वर रहित पद पाठसः । त्वम् । विप्राय । दाशुषे । रयिम् । देहि । सहस्रिणम् । अग्ने । वीरऽवतीम् । इषम् ॥ ८.४३.१५
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 43; मन्त्र » 15
अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 31; मन्त्र » 5
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अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 31; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
So generous and responsive as you are, Agni, give a thousandfold wealth, honour and excellence for the vibrant scholar and generous yajaka, give him life sustaining food and energy and generations of brave progeny.
मराठी (1)
भावार्थ
जो परिश्रमी असून धन किंवा ज्ञान प्राप्त करून दुसऱ्यावर उपकार करतो त्याच्यावरच भगवान आशीर्वादाचा वर्षाव करतो. त्यासाठी ‘विप्र’ व ‘दाश्वान’ ही पदे आलेली आहेत. जो परिश्रम करून प्राकृत जगापासून किंवा विद्वानांकडून शिक्षणाचा लाभ घेतो तोच विप्र मेधावी असतो. ज्याने काही दिलेले आहे, देत आहे त्याला दाश्वान म्हणतात. वीरवती = ज्या माणसात वीरता नाही त्याचे जगात येणे न येणे समान आहे. वीर नसलेला पुरुष आपली जीविका ही योग्य तऱ्हेने पार पाडू शकत नाही. ॥१५॥
संस्कृत (1)
विषयः
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पदार्थः
हे अग्ने ! सः त्वम् । विप्राय=मेधाविने जनाय । पुनः । दाशुषे=विज्ञानादिदानशीलाय च । सहस्रिणं= सहस्रसंख्याकमपरिमितम् । रयिं=जनम् । वीरवतीम्= वीरपुत्रपौत्रादिसमेताम् । इषमन्नञ्च । देहि ॥१५ ॥
हिन्दी (3)
विषय
N/A
पदार्थ
(अग्ने) हे सर्वगतिप्रद ईश ! (सः+त्वम्) वह तू (विप्राय) मेधावी जनों को तथा (दाशुषे) ज्ञान-विज्ञानदाता जनों को (सहस्रिणम्) अनन्त (रयिम्) धन को (देहि) दे । पुनः (वीरवतीम्) वीर पुत्र-पौत्र आदि सहित (इषम्) अन्न को दे ॥१५ ॥
भावार्थ
भगवान् उसी के ऊपर अपने आशीर्वाद की वर्षा करता है, जो स्वयं परिश्रमी हो और जो धन या ज्ञान प्राप्त कर दूसरों का उपकार करता हो । अतः विप्र और दाश्वान् पद आया है, जो परिश्रम करके प्राकृत जगत् से अथवा विद्वानों से शिक्षा लाभ करता है, वही विप्र मेधावी होता है । जिसने कुछ दिया है या देता है, उसी को दाश्वान् कहते हैं । वीरवती । जिस मनुष्य में वीरता नहीं है, जगत् में उसका आना और न आना बराबर है । अवीर पुरुष अपनी जीविका भी उचितरूप से नहीं कर सकता ॥१५ ॥
विषय
सहस्र-ऐश्वर्यप्रद प्रभु।
भावार्थ
हे ( अग्ने ) ज्ञानवन् ! विद्वन् ! तेजस्विन् ! ( सः त्वं ) वह तू ( दाशुषे ) ज्ञानादि देने वाले ( विप्राय ) मेधावी विद्वान् को ( सहस्रिणं रयिं ) सहस्रों की संख्या से युक्त ऐश्वर्य और ( वीरवतीम् इषम् ) वीरों और पुत्रों से युक्त अन्न, ( देहि ) प्रदान कर। इसी प्रकार वह परमेश्वर इस जीव को ( सहस्रिणम् ) सब सुखों और बलयुक्त प्राणों से युक्त ‘रयिं’ अर्थात् मूर्त्तदेह और ( वीरवतीम् इषम् ) प्राणों वाली इच्छा शक्ति प्रदान करता है। इत्येकत्रिंशो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विरूप आङ्गिरस ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः—१, ९—१२, २२, २६, २८, २९, ३३ निचृद् गायत्री। १४ ककुम्मती गायत्री। ३० पादनिचृद् गायत्री॥ त्रयस्त्रिंशदृचं सूक्तम्॥
विषय
सहस्रिणम् रयिम्
पदार्थ
[१] हे (अग्ने) = अग्रणी प्रभो ! (स त्वं) = वे आप (विप्राय) = विशेषरूप से अपना पूरण करनेवाले (दाशुषे) = दाश्वान्-दानशील व आत्मसमर्पण करनेवाले पुरुष के लिए (सहस्रिणं) = सहस्रों की संख्यावाले बहुत अधिक (रयिं) = ऐश्वर्य को (देहि) = दीजिए। [२] हे अग्ने ! आप (वीरवतीम्) = [वीर=प्राण] प्राणोंवाली (इषं) = प्रेरणा को प्राप्त कराइए। प्रेरणा को प्राप्त कराइए और प्रेरणा के साथ उस प्राणशक्ति को भी प्राप्त कराइए जिससे कि उस प्रेरणा को हम कार्यान्वित कर पाएँ ।
भावार्थ
भावार्थ- हे प्रभो ! हम ज्ञानी व आत्मसमर्पण करनेवाले बनें। आप हमारे लिए ऐश्वर्य, प्राणशक्ति व प्रेरणा को प्राप्त कराइए।
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