ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 43/ मन्त्र 21
पु॒रु॒त्रा हि स॒दृङ्ङसि॒ विशो॒ विश्वा॒ अनु॑ प्र॒भुः । स॒मत्सु॑ त्वा हवामहे ॥
स्वर सहित पद पाठपु॒रु॒ऽत्रा । हि । स॒दृङ् । असि॑ । विशः॑ । विश्वाः॑ । अनु॑ । प्र॒ऽभुः । स॒मत्ऽसु॑ । त्वा॒ । ह॒वा॒म॒हे॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
पुरुत्रा हि सदृङ्ङसि विशो विश्वा अनु प्रभुः । समत्सु त्वा हवामहे ॥
स्वर रहित पद पाठपुरुऽत्रा । हि । सदृङ् । असि । विशः । विश्वाः । अनु । प्रऽभुः । समत्ऽसु । त्वा । हवामहे ॥ ८.४३.२१
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 43; मन्त्र » 21
अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 33; मन्त्र » 1
Acknowledgment
अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 33; मन्त्र » 1
Acknowledgment
भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Agni, universal presence, lord and ruler of all people, giving equal care and attention to all nations and regions, in all the battles of our life we invoke you and pray for justice and success.
मराठी (1)
भावार्थ
परमेश्वराजवळ किंचितमात्रही भेदभाव नाही व सर्वांचा स्वामीही तोच आहे. त्यामुळे सर्वजण त्याचीच पूजा करतात यावेळीही तुम्ही त्याच्याच कीर्तीचे गान करा. ॥२१॥
संस्कृत (1)
विषयः
N/A
पदार्थः
हे अग्ने ईश्वर ! हि=यतः । पुरुत्रा=बहुषु प्रदेशेषु । सर्वत्रैवेत्यर्थः । सदृङ्=समानरूपः । असि=भवसि । तथा विश्वाः=सर्वाः । विशः=प्रजाः । अनु । सर्वासां प्रजानामित्यर्थः । प्रभुः=प्रभुः स्वामी वर्तसे । अत्र सुलोपश्छान्दसः । अतः । समत्सु=युद्धेषु=सर्वेषु कर्मसु च । त्वा=त्वामेव । हवामहे=ह्वयामः=स्तुमः ॥२१ ॥
हिन्दी (3)
विषय
N/A
पदार्थ
हे महेश ! (हि) जिस कारण तू (पुरुत्रा) सर्व प्रदेश में (सदृङ्+असि) समानरूप से विद्यमान है और (विश्वाः) समस्त (विशः+अनु) प्रजाओं का (प्रभु) स्वामी है अतः (त्वा) तुझको ही (समत्सु) संग्रामों और शुभकर्मों में (हवामहे) पूजते ध्याते और नाना स्तोत्रों से स्तुति करते हैं ॥२१ ॥
भावार्थ
जिस कारण परमात्मा में किञ्चिन्मात्र भी पक्षपात का लेश नहीं है और सबका स्वामी भी वही है, अतः उसी को सब पूजते चले आते हैं । इस समय भी तुम उसी की कीर्ति गाओ ॥२१ ॥
विषय
समदर्शी प्रभु।
भावार्थ
हे विभो ! प्रभो ! स्वामिन् ! तू ( विश्वाः विशः अनु प्रभुः ) समस्त प्रजाओं के अनुकूल, सबका स्वामी और ( पुरुत्र हि ) पालने योग्य इन्द्रियों में आत्मा के समान ही ( सदृङ् असि ) सबको समान भाव से देखने वाला तदनुरूप है। ( समत्सु ) संग्रामों और हर्षावसरों में भी ( त्वा हवामहे ) तेरी ही प्रार्थना करते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विरूप आङ्गिरस ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः—१, ९—१२, २२, २६, २८, २९, ३३ निचृद् गायत्री। १४ ककुम्मती गायत्री। ३० पादनिचृद् गायत्री॥ त्रयस्त्रिंशदृचं सूक्तम्॥
विषय
विशो विश्वा अनु प्रभुः
पदार्थ
[१] हे प्रभो! आप (पुरुत्रा) = सर्वत्र (हि) = ही (सदृङ् असि) = समान रूप से हैं। (विश्वाः) = सब (विश: अनु) = प्रजाओं के अनुकूलता से (प्रभुः) = स्वामी है, अर्थात् सबका समान रूप से कल्याण करनेवाले प्रभु हैं। [२] हम (समत्सु) = संग्रामों में व [स मद्] हर्षावसरों में (त्वा हवामहे) = आपको ही पुकारते हैं। आपके द्वारा ही तो इन संग्रामों में विजय व हर्षावसरों में संयम को पाते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु सर्वत्र समान रूप से हैं। सब के अनुकूल स्वामी हैं। प्रभु ही हमें संग्रामों में विजयी करते हैं।
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal