ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 43/ मन्त्र 30
ऋषिः - विरूप आङ्गिरसः
देवता - अग्निः
छन्दः - पादनिचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
ते घेद॑ग्ने स्वा॒ध्योऽहा॒ विश्वा॑ नृ॒चक्ष॑सः । तर॑न्तः स्याम दु॒र्गहा॑ ॥
स्वर सहित पद पाठते । घ॒ । इत् । अ॒ग्ने॒ । सु॒ऽआ॒ध्यः । अहा॑ । विश्वा॑ । नृ॒ऽचक्ष॑सः । तर॑न्तः । स्या॒म॒ । दुः॒ऽगहा॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
ते घेदग्ने स्वाध्योऽहा विश्वा नृचक्षसः । तरन्तः स्याम दुर्गहा ॥
स्वर रहित पद पाठते । घ । इत् । अग्ने । सुऽआध्यः । अहा । विश्वा । नृऽचक्षसः । तरन्तः । स्याम । दुःऽगहा ॥ ८.४३.३०
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 43; मन्त्र » 30
अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 34; मन्त्र » 5
Acknowledgment
अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 34; मन्त्र » 5
Acknowledgment
भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Doing good works in your service, always watching all the people around, may we become breakers of the most difficult oppositions and cross over the challenging seas of life.
मराठी (1)
भावार्थ
जेव्हा ज्ञानी लोक आपल्या व इतर जीवांच्या विचित्र दशांचे अवलोकन करतात तेव्हा त्यांना याबाबत घृणा व वैराग्य उत्पन्न होते. त्याच्या निवृत्तीसाठी ते ईश्वराजवळ पोचतात. यावरून ईश्वराजवळ या - ही शिकवण मिळते. ॥३०॥
संस्कृत (1)
विषयः
N/A
पदार्थः
हे अग्ने ! ते+घ+इत्=तवैव कृपया । वयं । नृचक्षसः=नृणां मनुष्याणां विविधदशाद्रष्टारः । अत एव । विश्वा=विश्वानि सर्वाणि । अहा=अहानि । स्वाध्यः=सुकर्माणो भूत्वा । दुर्गहा=दुःखेन गाहयितव्यानि वस्तूनि । तरन्तः स्याम । तादृशी कृपा विधेया ॥३० ॥
हिन्दी (3)
विषय
N/A
पदार्थ
(अग्ने) हे सर्वाधार परमात्मन् ! (ते+घ+इत्) तेरी ही महती कृपा से (नृचक्षसः) मनुष्यों की ऊँच नीच विविध दशाओं को देख उनसे घृणायुक्त अत एव (विश्वा+अहा) सब दिन (स्वाध्यः) शुभ कर्मों को करते हुए आपसे प्रार्थना करते हैं कि (दुर्गहा) दुर्गम क्लेशों को (तरन्तः+स्याम) पार करने में हम समर्थ होवें ॥३० ॥
भावार्थ
जब ज्ञानी जन अपनी तथा अन्यान्य जीवों की विचित्र दशाओं पर ध्यान देते हैं, तब उनसे घृणा और वैराग्य उत्पन्न होता है, तत्पश्चात् उनकी निवृत्ति के लिये ईश्वर के निकट पहुँचता है । सदा ईश्वर की ओर आओ, यह शिक्षा इससे देते हैं ॥३० ॥
विषय
आत्मा के तीन रूप।
भावार्थ
हे ( अग्ने ) प्रकाशस्वरूप, ! ( विश्वा अहा) सब दिनों, ( नृचक्षसः ) नायक प्रभु को देखने वाले और (ते घ इत्) तेरे ही ( सु-आध्यः ) सुख से ध्यान, उपासना करने वाले होकर हम ( दुर्ग-हा ) दुःख से पार करने योग्य संकटों को ( तरन्तः स्याम ) पार करने वाले हों।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विरूप आङ्गिरस ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः—१, ९—१२, २२, २६, २८, २९, ३३ निचृद् गायत्री। १४ ककुम्मती गायत्री। ३० पादनिचृद् गायत्री॥ त्रयस्त्रिंशदृचं सूक्तम्॥
विषय
नृचक्षसः - स्वाध्यः
पदार्थ
[१] हे (अग्ने) = परमात्मन् ! (घा इत्) = निश्चय से (ते) = आपका (स्वाध्यः) = उत्तम आध्यान करनेवाले, (विश्वा अहा) = सब दिनों अर्थात् (सदा नृचक्षसः) = सब मनुष्यों को देखनेवाले - उनका ध्यान करनेवाले उनके हित के लिए कर्मों को करनेवाले हम (दुर् गहा) = कठिनता से पार करने योग्य शत्रु को (तरन्तः स्याम) = तैर जानेवाले हों। [२] काम-क्रोध आदि प्रबल भयंकर शत्रुओं को जीतने का यही मार्ग है कि हम प्रभु का ध्यान करें और सर्वहितकर कर्मों में लगे रहें।
भावार्थ
भावार्थ-दु-र्गह शत्रुओं को भी ध्यान करनेवाले तथा लोकहित के कर्मों में लगे रहनेवाले लोग तैर जाते हैं।
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal