ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 43/ मन्त्र 7
धा॒सिं कृ॑ण्वा॒न ओष॑धी॒र्बप्स॑द॒ग्निर्न वा॑यति । पुन॒र्यन्तरु॑णी॒रपि॑ ॥
स्वर सहित पद पाठधा॒सिम् । कृ॒ण्वा॒नः । ओष॑धीः । बप्स॑त् । अ॒ग्निः । न । वा॒य॒ति॒ । पुनः॑ । यन् । तरु॑णीः । अपि॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
धासिं कृण्वान ओषधीर्बप्सदग्निर्न वायति । पुनर्यन्तरुणीरपि ॥
स्वर रहित पद पाठधासिम् । कृण्वानः । ओषधीः । बप्सत् । अग्निः । न । वायति । पुनः । यन् । तरुणीः । अपि ॥ ८.४३.७
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 43; मन्त्र » 7
अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 30; मन्त्र » 2
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अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 30; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Conducting itself into herbs and trees, making them as if a dwelling for itself, energising them and, as fire even consuming them, Agni does not feel satiated, and takes on to new budding ones on and on. (The life cycle of birth, death and rebirth, growth, decay and growth thus continues.)
मराठी (1)
भावार्थ
ही एक स्वाभाविक घटना आहे की, आग्नेय शक्तीच पदार्थाला वाढवितात किंवा घटवितात. त्यामुळे सदैव पदार्थामध्ये उपचय व अपचय होत असतो. हे माणसांनो! ही पदार्थाची गती पाहून ईश्वराच्या चिंतनात रमा. एके दिवशी तुमचाही अपचय (नाश) होईल. ॥७॥
संस्कृत (1)
विषयः
पुनरग्निगुणाः प्रदर्श्यन्ते ।
पदार्थः
अग्निः । ओषधीः=सर्वान् गोधूमादिवनस्पतीन् । धासिम्=स्वभक्षं विधाय । ताश्च । बप्सद्=भक्षयन्नपि । न वायति=न तृप्यति । पुनः । तरुणीरपि ओषधीः यन् तत्र प्रसरन् भक्षयति ॥७ ॥
हिन्दी (3)
विषय
पुनः अग्नि के गुण दिखलाते हैं ।
पदार्थ
(अग्निः) अग्निदेव (ओषधीः) गोधूम आदि समस्त वनस्पतियों को (धासिम्) निज भक्ष बनाकर (बप्सत्) उनको खाते हुए भी (न+वायति) तृप्त नहीं होते । पुनः । किन्तु (तरुणीः) नवीन तरुण ओषधियों को (अपि) भी (यन्) प्राप्त कर उनमें फैलते हुए खाना चाहते हैं ॥७ ॥
भावार्थ
यह भी स्वाभाविक वर्णन है । आग्नेय शक्तियाँ ही पदार्थमात्र को बढ़ाती और घटाती हैं । इस कारण सदा पदार्थों में अनपचय और अपचय होता ही रहता है, हे मनुष्यों ! यह पदार्थगति देख ईश्वर के चिन्तन में लगो । एक दिन तुम्हारा भी अपचय आरम्भ होगा ॥७ ॥
विषय
अग्नि से जीवनधारी आत्मा की तुलना।
भावार्थ
जिस प्रकार (अग्निः ओषधीः धासिं कृण्वानः बप्सत् ) नाना ओषधियों को अपना अन्न बना २ कर खाता है, (न वायति) शान्त नहीं होता है और (पुनः तरुणीः अपि यन् ) फिर बड़ी लताओं को भी प्राप्त करता है उसी प्रकार यह ( अग्निः ) अग्नि के समान स्वप्रकाश जीव भी इस देहभूमि में प्राप्त होकर ( ओषधीः धासिं कृण्वानः ) नाना अन्नादि ओषधियों को अपने धारण पोषणकारी खाद्य पदार्थ बनाता हुआ ( बप्सद् ) उनका भक्षण करता है और वह (न वायति) शान्त नहीं होता, वह नहीं मरता, जीवित रहता है, और वह ( पुनः ) बार २ ( तरुणी: अपि यत् ) स्त्रादि भोगों वा तरुण अर्थात् यौवनादि दशाओं को प्राप्त होता हुआ भी ( न वायति ) भोगों से तृप्त नहीं होता। उन्हीं में लिप्त होजाता है।
टिप्पणी
जीर्यन्ति जीर्यतः केशाः दन्ता जीर्यन्ति जीर्यतः। गात्राणि शिथिलायन्ते तृष्णैका तरुणायते॥ अर्थात् उस जीव को राजस भोग प्राप्त होकर इतने अधिक 'कृष्ण' अर्थात् आकर्षक होते हैं कि वह उनको साधन शिथिल होने पर भी नहीं त्यागता।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विरूप आङ्गिरस ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः—१, ९—१२, २२, २६, २८, २९, ३३ निचृद् गायत्री। १४ ककुम्मती गायत्री। ३० पादनिचृद् गायत्री॥ त्रयस्त्रिंशदृचं सूक्तम्॥
विषय
मात्रा में वानस्पतिक भोजन
पदार्थ
[१] (अग्निः) = प्रगतिशील जीव (धासिं कृण्वानः) = धारणात्मक भोजन को करता हुआ- अर्थात् शरीर धारण के ही लिए भोजन को ग्रहण करता हुआ, (ओषधीः बप्सत्) = ओषधि वनस्पतियों का ही भक्षण करता हुआ (न वायति) श्रान्त नहीं होता जाता । (शुष्क) ] अंग-प्रत्यंगोंवाला नहीं हो जाता। [२] और (पुनः) = फिर यह प्रगतिशील जीव इन वानस्पतिक भोजनों को करता हुआ (तरुणीः अपि यत्) = संसार सागर से तरानेवाली भावनाओं की ओर ही गतिवाला होता है।
भावार्थ
भावार्थ- मात्रा में किया गया वानस्पतिक भोजन [क] शरीर को सरस अङ्ग-प्रत्यङ्गोंवाला बनाता है, और [ख] भावनाओं को उत्तम बनाता है।
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