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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 43 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 43/ मन्त्र 27
    ऋषिः - विरूप आङ्गिरसः देवता - अग्निः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    यं त्वा॒ जना॑स इन्ध॒ते म॑नु॒ष्वद॑ङ्गिरस्तम । अग्ने॒ स बो॑धि मे॒ वच॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यम् । त्वा॒ । जना॑सः । इ॒न्ध॒ते । म॒नु॒ष्वत् । अ॒ङ्गि॒रः॒ऽत॒म॒ । अग्ने॑ । सः । बो॒धि॒ । मे॒ । वचः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यं त्वा जनास इन्धते मनुष्वदङ्गिरस्तम । अग्ने स बोधि मे वच: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यम् । त्वा । जनासः । इन्धते । मनुष्वत् । अङ्गिरःऽतम । अग्ने । सः । बोधि । मे । वचः ॥ ८.४३.२७

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 43; मन्त्र » 27
    अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 34; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Agni, light and power dearest as life breath, whom people kindle, raise and adore as a friend of humanity, pray listen, acknowledge and appreciate the truth and sincerity of my word and prayer.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे भगवान! मी तुझी केवळ स्तुतीच करतो त्यासाठी कृपा कर. जरी ध्यानामध्ये योगी तुला पाहतात तरी मी असमर्थ असल्यामुळे केवळ तुझे कीर्तिगान गातो. ॥२७॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    N/A

    पदार्थः

    हे अङ्गिरस्तम=सर्वेषामतिशयेन रसप्रद ! हे अग्ने ! मनुष्वत्=यथा मनवो मन्तारो जनाः तथा यं त्वा जनासः=जनाः । इन्धते समाधौ दीपयन्ति पश्यन्तीत्यर्थः स त्वम् । मे=मम वचः । बोधि=बुध्यस्व ॥२७ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    N/A

    पदार्थ

    (अङ्गिरस्तम) हे सबको अतिशय रसप्रद ! (अग्ने) हे सर्वाधार सर्वशक्ते ! (मनुष्वत्) बोद्धा विज्ञाता मनुष्यों के समान (यम्+त्वाम्) जिस तुझको (जनासः) मनुष्य (इन्धते) समाधि में देखते हैं, (सः) वह तू (मे+वचः) मेरी स्तुतिरूप वचन को (बोधि) जान अर्थात् कृपापूर्वक सुन ॥२७ ॥

    भावार्थ

    हे भगवन् ! मैं आपकी केवल स्तुति ही करता हूँ, इसी के ऊपर कृपा कर । यद्यपि तुझको ध्यान में योगिगण देखते हैं, तथापि मैं उसमें असमर्थ होकर केवल तेरी कीर्ति गाता हूँ ॥२७ ॥

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    विषय

    अग्निवत् प्रभु।

    भावार्थ

    हे ( अङ्गिरस्तम ) अति तेजस्विन् ! ( अग्ने ) अग्रणी नायकवत् मार्गप्रकाशक ! ( यं त्वा ) जिस तुझ को ( जनासः ) मनुष्य ( मनुष्वत् ) ज्ञानी के समान होकर ( त्वाम् इन्धते ) तुझे ही प्रज्वलित करते हैं ( सः त्वं ) वह तू ( मे वचः बोधि ) मेरे वचन का ज्ञान कर।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विरूप आङ्गिरस ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः—१, ९—१२, २२, २६, २८, २९, ३३ निचृद् गायत्री। १४ ककुम्मती गायत्री। ३० पादनिचृद् गायत्री॥ त्रयस्त्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    मनुष्वत्

    पदार्थ

    [१] हे (अंगिरस्तम) = हमें अंग-प्रत्यंग में अधिक-से-अधिक रसमय बनानेवाले (अग्ने) = अग्रणी प्रभो ! (सः) = वे आप (मे वचः) = मेरे प्रार्थनावचन को (बोधि) = जानिए। मेरी पुकार को आप सुनिए । [२] वे आप मेरी पुकार को सुनिए (यः) = जिन (त्वा) = आपको (जनासः) = लोग (मनुष्वत्) = विचारशील पुरुष की तरह (इन्धते) = अपने अन्दर दीप्त करते हैं। जितना-जितना हम विचारशील बनते हैं, उतना- उतना प्रभु को अपने में दीप्त कर पाते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ:- हम विचारशील बनकर प्रभु को अपने में देखने का प्रयत्न करें। प्रभु ही हमारी प्रार्थना को सुनते हैं।

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