ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 44/ मन्त्र 2
अग्ने॒ स्तोमं॑ जुषस्व मे॒ वर्ध॑स्वा॒नेन॒ मन्म॑ना । प्रति॑ सू॒क्तानि॑ हर्य नः ॥
स्वर सहित पद पाठअग्ने॑ । स्तोम॑म् । जु॒ष॒स्व॒ । मे॒ । वर्ध॑स्व । अ॒नेन॑ । मन्म॑ना । प्रति॑ । सु॒ऽउ॒क्तानि॑ । ह॒र्य॒ । नः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्ने स्तोमं जुषस्व मे वर्धस्वानेन मन्मना । प्रति सूक्तानि हर्य नः ॥
स्वर रहित पद पाठअग्ने । स्तोमम् । जुषस्व । मे । वर्धस्व । अनेन । मन्मना । प्रति । सुऽउक्तानि । हर्य । नः ॥ ८.४४.२
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 44; मन्त्र » 2
अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 36; मन्त्र » 2
अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 36; मन्त्र » 2
विषय - अग्नि - परिचर्या के तुल्य गुरु और प्रभु की उपासना।
भावार्थ -
हे (अग्ने ) ज्ञानप्रकाशक ! तू ( मे स्तोमं जुषस्व ) मेरी स्तुति को स्वीकार कर। और ( अनेन मन्मना ) इस मनन करने योग्य ज्ञान से ( वर्धस्व ) वृद्धि को प्राप्त हो। ( नः सूक्तानि प्रति हर्य ) हमारे सूक्तों, उत्तम वचनों को तू चाह और हमें उत्तम वचनों का उपदेश कर।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - विरूप आङ्गिरस ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्द:– १, ३, ४, ६, १०, २०—२२, २५, २६ गायत्री। २, ५, ७, ८, ११, १४—१७, २४ निचृद् गायत्री। ९, १२, १३, १८, २८, ३० विराड् गायत्री। २७ यवमध्या गायत्री। २१ ककुम्मती गायत्री। १९, २३ पादनिचृद् गायत्री॥ त्रिंशदृचं सूक्तम्॥
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