ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 6/ मन्त्र 3
कण्वा॒ इन्द्रं॒ यदक्र॑त॒ स्तोमै॑र्य॒ज्ञस्य॒ साध॑नम् । जा॒मि ब्रु॑वत॒ आयु॑धम् ॥
स्वर सहित पद पाठकण्वाः॑ । इन्द्र॑म् । यत् । अक्र॑त । स्तोमैः॑ । य॒ज्ञस्य॑ । साध॑नम् । जा॒मि । ब्रु॒व॒ते॒ । आयु॑धम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
कण्वा इन्द्रं यदक्रत स्तोमैर्यज्ञस्य साधनम् । जामि ब्रुवत आयुधम् ॥
स्वर रहित पद पाठकण्वाः । इन्द्रम् । यत् । अक्रत । स्तोमैः । यज्ञस्य । साधनम् । जामि । ब्रुवते । आयुधम् ॥ ८.६.३
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 6; मन्त्र » 3
अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 9; मन्त्र » 3
अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 9; मन्त्र » 3
विषय - विद्वानों के कर्त्तव्य !
भावार्थ -
( यत् ) जब ( कण्वाः ) विद्वान् पुरुष, ( इन्द्रं ) ऐश्वर्यवान् प्रभु को ( स्तोमैः ) उत्तम स्तुति वचनों से तथा अधिकारों, पदों से ( यज्ञस्य ) परस्पर मिलकर करने योग्य देवपूजा, संगतिकरण भावना, दान आदि सत्कर्मों का ( साधनम् ) साधक, निमित्त ( अक्रत ) बना लेते हैं तब वे ( आयुधम् ) सब संकटों को पराजित करने वाले आयुध के समान उस प्रभु को ही वे ( जामि बुवते ) अपना बन्धु कहने लगते हैं। वे उसी को सब से बड़ा बल, सब से बड़ा अस्त्र मानते हैं। अथवा जब वे प्रभु को ही सर्वोपास्य जान लेते हैं तब वे आयुध शस्त्रादि को भी ( जामि ब्रुवते ) व्यर्थ बतलाया करते हैं । ईश्वर पर किया विश्वास ही उनका एकमात्र रक्षक होता है ।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वत्सः काण्व ऋषिः ॥ १—४५ इन्द्रः। ४६—४८ तिरिन्दिरस्य पारशव्यस्य दानस्तुतिर्देवताः॥ छन्दः—१—१३, १५—१७, १९, २५—२७, २९, ३०, ३२, ३५, ३८, ४२ गायत्री। १४, १८, २३, ३३, ३४, ३६, ३७, ३९—४१, ४३, ४५, ४८ निचृद् गायत्री। २० आर्ची स्वराड् गायत्री। २४, ४७ पादनिचृद् गायत्री। २१, २२, २८, ३१, ४४, ४६ आर्षी विराड् गायत्री ॥
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