ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 64/ मन्त्र 2
प॒दा प॒णीँर॑रा॒धसो॒ नि बा॑धस्व म॒हाँ अ॑सि । न॒हि त्वा॒ कश्च॒न प्रति॑ ॥
स्वर सहित पद पाठप॒दा । प॒णी॑न् । अ॒रा॒धसः॑ । नि । बा॒ध॒स्व॒ । म॒हान् । अ॒सि॒ । न॒हि । त्वा॒ । कः । च॒न । प्रति॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
पदा पणीँरराधसो नि बाधस्व महाँ असि । नहि त्वा कश्चन प्रति ॥
स्वर रहित पद पाठपदा । पणीन् । अराधसः । नि । बाधस्व । महान् । असि । नहि । त्वा । कः । चन । प्रति ॥ ८.६४.२
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 64; मन्त्र » 2
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 44; मन्त्र » 2
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 44; मन्त्र » 2
विषय - महान् प्रभु।
भावार्थ -
( पदा ) पैर से ( पणीन् अराधसः ) यज्ञार्थ, दान पुण्यार्थ, धन वा करादि से रहित केवल, धनव्यवहरियों को (नि बाधस्व ) खूब पीड़ित कर। (महान् असि) तू सबसे बड़ा है। (प्रति कश्चन नहि ) तेरे का मुकाबले और कोई दूसरा नहीं है। राजा का कर्त्तव्य है कि सब धन व्यवहारियों पर राजा करादि दण्ड लगावे, जो राजकर वा धर्मकर न दे उसे दण्डित करे और उसके व्यवहार में बाधा करे। अथवा जो व्यक्ति विना धन के व्यापार करे राजा उस पर दण्ड करे। वह बहुतों का धन मार कर बाद में देवालिया होकर अन्यों को हानि करता है।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - प्रगाथः काण्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ५, ७, ९ निचृद् गायत्री। ३ स्वराड् गायत्री। ४ विराड् गायत्री। २, ६, ८, १०—१२ गायत्री। द्वादशर्चं सूक्तम्॥
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