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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 7/ मन्त्र 1
    ऋषिः - पुनर्वत्सः काण्वः देवता - मरूतः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    प्र यद्व॑स्त्रि॒ष्टुभ॒मिषं॒ मरु॑तो॒ विप्रो॒ अक्ष॑रत् । वि पर्व॑तेषु राजथ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र । यत् । वः॒ । त्रि॒ऽस्तुभ॑म् । इष॑म् । मरु॑तः । विप्रः॑ । अक्ष॑रत् । वि । पर्व॑तेषु । रा॒ज॒थ॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्र यद्वस्त्रिष्टुभमिषं मरुतो विप्रो अक्षरत् । वि पर्वतेषु राजथ ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्र । यत् । वः । त्रिऽस्तुभम् । इषम् । मरुतः । विप्रः । अक्षरत् । वि । पर्वतेषु । राजथ ॥ ८.७.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 7; मन्त्र » 1
    अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 18; मन्त्र » 1

    भावार्थ -
    जिस प्रकार जब ( मरुतः पर्वतेषु वि राजथ ) वायुगण मेघों में विशेष विद्युत् दीप्ति उत्पन्न करते हैं तब ( विप्रः इषं अक्षरत् ) रूप से विशेष जल से पूर्ण मेघ वृष्टि को ( त्रिष्टुभम् ) पृथिवी के प्रति सेचन करता है। इसी प्रकार हे ( मरुतः ) प्राणो ! ( यत् ) जब ( विप्रः ) पुरुष ( त्रिष्टुभम् ) तीन कालों में ( इषं ) अन्न रस को ( प्र अक्षरत् ) अच्छी प्रकार देह में सेचन करता है तब हे प्राणो ! तुम ( पर्वतेषु ) पर्व अर्थात् पोरुओं से युक्त देह के अंगों में (वि राजथ) विराजते हो । अथवा—हे ( मरुतः ) वीर मनुष्यो ! ( विप्रः ) ज्ञान और ऐश्वर्य को पूर्ण करने वाला विद्वान् राजा ( व: ) आप लोगों की ( त्रिष्टुभम् इषम् ) क्षात्रबल से युक्त सेना को ( प्र अक्षरत् ) आगे बढ़ाता है तब आप लोग ( पर्वतेषु ) पर्वतों अर्थात् पर्व पर्व, वा खण्ड २ युक्त सैन्य दलों में विशेष रूप से सुशोभित होओ !

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - पुनर्वत्सः काण्व ऋषिः॥ मरुतो देवताः॥ छन्दः—१, ३—५, ७—१३, १७—१९, २१, २८, ३०—३२, ३४ गायत्री । २, ६, १४, १६, २०,२२—२७, ३५, ३६ निचृद् गायत्री। १५ पादनिचृद् गायत्री। २९, ३३ आर्षी विराड् गायत्री षट्त्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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