ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 7/ मन्त्र 33
ऋषिः - पुनर्वत्सः काण्वः
देवता - मरूतः
छन्दः - विराडार्षीगायत्री
स्वरः - षड्जः
ओ षु वृष्ण॒: प्रय॑ज्यू॒ना नव्य॑से सुवि॒ताय॑ । व॒वृ॒त्यां चि॒त्रवा॑जान् ॥
स्वर सहित पद पाठओ इति॑ । सु । वृष्णः॑ । प्रऽय॑ज्यून् । आ । नव्य॑से । सु॒वि॒ताय॑ । व॒वृ॒त्याम् । चि॒त्रऽवा॑जान् ॥
स्वर रहित मन्त्र
ओ षु वृष्ण: प्रयज्यूना नव्यसे सुविताय । ववृत्यां चित्रवाजान् ॥
स्वर रहित पद पाठओ इति । सु । वृष्णः । प्रऽयज्यून् । आ । नव्यसे । सुविताय । ववृत्याम् । चित्रऽवाजान् ॥ ८.७.३३
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 7; मन्त्र » 33
अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 24; मन्त्र » 3
अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 24; मन्त्र » 3
विषय - उन की तुलना से सज्जनों, वीरों के कर्तव्य ।
भावार्थ -
मैं ( वृष्णः ) बलवान्, उदार, (प्र-यज्यून् ) उत्तम दानशील ( चित्र-वाजान् ) अद्भुत बल और ऐश्वर्य के स्वामी जनों से ( सुविताय ) उत्तम धन प्राप्त करने और (नव्यसे) नये से नये धन प्राप्त करने के लिये ( आ ववृत्याम् ) अपने सन्मुख प्रार्थना करूं । उसी प्रकार ( नव्यसे सुविताय ) स्तुत्य, उत्तम चरित्र शिक्षण के लिये अद्भुत ज्ञानी पुरुषों की शरण जाकर उनसे प्रार्थना करूं ।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - पुनर्वत्सः काण्व ऋषिः॥ मरुतो देवताः॥ छन्दः—१, ३—५, ७—१३, १७—१९, २१, २८, ३०—३२, ३४ गायत्री । २, ६, १४, १६, २०,२२—२७, ३५, ३६ निचृद् गायत्री। १५ पादनिचृद् गायत्री। २९, ३३ आर्षी विराड् गायत्री षट्त्रिंशदृचं सूक्तम्॥
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