ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 7/ मन्त्र 34
गि॒रय॑श्चि॒न्नि जि॑हते॒ पर्शा॑नासो॒ मन्य॑मानाः । पर्व॑ताश्चि॒न्नि ये॑मिरे ॥
स्वर सहित पद पाठगि॒रयः॑ । चि॒त् । नि । जि॒ह॒ते॒ । पर्शा॑नासः । मन्य॑मानाः । पर्व॑ताः । चि॒त् । नि । ये॒मि॒रे॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
गिरयश्चिन्नि जिहते पर्शानासो मन्यमानाः । पर्वताश्चिन्नि येमिरे ॥
स्वर रहित पद पाठगिरयः । चित् । नि । जिहते । पर्शानासः । मन्यमानाः । पर्वताः । चित् । नि । येमिरे ॥ ८.७.३४
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 7; मन्त्र » 34
अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 24; मन्त्र » 4
अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 24; मन्त्र » 4
विषय - उन की तुलना से सज्जनों, वीरों के कर्तव्य ।
भावार्थ -
( चित्) जिस प्रकार सजल वायुओं से स्पर्श पाकर (गिरयः नि जिहते ) मेघ भी भारी होकर नीचे उतर आते हैं ( पर्वताः चित् नियेमिरे ) पर्वत भी उनकी रोक थाम करते हैं उसी प्रकार ( पर्शानासः ) उत्तम विद्वानों और वीरों से स्पर्श पाकर ( मन्यमानाः ) अभिमान युक्त ( गिरयः ) विद्वान् जन ( नि जिहते ) विनय से झुकते हैं और ( पर्शानासः ) पीड़ित होकर (पर्वताः चित् ) पर्वतवत् दृढ़ अभेद्य, शत्रु जन भी ( नि येमिरे ) बांधे जाते हैं । वश किये जाते हैं ।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - पुनर्वत्सः काण्व ऋषिः॥ मरुतो देवताः॥ छन्दः—१, ३—५, ७—१३, १७—१९, २१, २८, ३०—३२, ३४ गायत्री । २, ६, १४, १६, २०,२२—२७, ३५, ३६ निचृद् गायत्री। १५ पादनिचृद् गायत्री। २९, ३३ आर्षी विराड् गायत्री षट्त्रिंशदृचं सूक्तम्॥
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