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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 7/ मन्त्र 35
    ऋषिः - पुनर्वत्सः काण्वः देवता - मरूतः छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    आक्ष्ण॒यावा॑नो वहन्त्य॒न्तरि॑क्षेण॒ पत॑तः । धाता॑रः स्तुव॒ते वय॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । अ॒क्ष्ण॒ऽयावा॑नः । व॒ह॒न्ति॒ । अ॒न्तरि॑क्षेण । पत॑तः । धाता॑रः । स्तु॒व॒ते । वयः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आक्ष्णयावानो वहन्त्यन्तरिक्षेण पततः । धातारः स्तुवते वय: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । अक्ष्णऽयावानः । वहन्ति । अन्तरिक्षेण । पततः । धातारः । स्तुवते । वयः ॥ ८.७.३५

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 7; मन्त्र » 35
    अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 24; मन्त्र » 5

    भावार्थ -
    ( अन्तरिक्षेण पततः धातारः यथा वयः वहन्ति ) जिस प्रकार अन्तरिक्ष से जाते हुए सजल पवन गण विश्व के पोषक होकर अन्न वा जीवन प्राप्त कराते हैं उसी प्रकार ( अक्षण-यावानः ) आंख के इशारे से आगे बढ़ने वाले, और ( अन्तरिक्षेण पततः ) आकाश मार्ग से जाने वाले, ( धातारः ) राष्ट्र के धारक, शासक जन ( स्तुवते ) प्रार्थी प्रजाजन के हितार्थ ( वयः वहन्ति ) बल, जीवन और अन्न धारण करते और प्राप्त कराते हैं ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - पुनर्वत्सः काण्व ऋषिः॥ मरुतो देवताः॥ छन्दः—१, ३—५, ७—१३, १७—१९, २१, २८, ३०—३२, ३४ गायत्री । २, ६, १४, १६, २०,२२—२७, ३५, ३६ निचृद् गायत्री। १५ पादनिचृद् गायत्री। २९, ३३ आर्षी विराड् गायत्री षट्त्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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