ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 81/ मन्त्र 1
आ तू न॑ इन्द्र क्षु॒मन्तं॑ चि॒त्रं ग्रा॒भं सं गृ॑भाय । म॒हा॒ह॒स्ती दक्षि॑णेन ॥
स्वर सहित पद पाठआ । तु । नः॒ । इ॒न्द्र॒ । क्षु॒ऽमन्त॑म् । चि॒त्रम् । ग्रा॒भम् । सम् । गृ॒भ॒य॒ । म॒हा॒ऽह॒स्ती । दक्षि॑णेन ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ तू न इन्द्र क्षुमन्तं चित्रं ग्राभं सं गृभाय । महाहस्ती दक्षिणेन ॥
स्वर रहित पद पाठआ । तु । नः । इन्द्र । क्षुऽमन्तम् । चित्रम् । ग्राभम् । सम् । गृभय । महाऽहस्ती । दक्षिणेन ॥ ८.८१.१
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 81; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 37; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 37; मन्त्र » 1
विषय - प्रभु की स्तुति और प्रार्थनाएं। प्रभु
भावार्थ -
हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! तू ( महा-हस्ती ) बड़े हाथ वाला है। तू ( दक्षिणेन ) दायें हाथ से ( नः ) हमें ( क्षुमन्तं ) कीर्त्तिजनक, अन्नादि से सम्पन्न ( चित्रग्राभं ) नाना प्रकार का ग्रहण करने योग्य धन ( सं गृभाय ) संग्रह कर।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - कुसीदी काण्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः—१, ५, ८ गायत्री। २, ३, ६, ७ निचृद गायत्री। ४, ९ त्रिराड् गायत्री॥ नवर्चं सूक्तम्॥
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