ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 99/ मन्त्र 2
मत्स्वा॑ सुशिप्र हरिव॒स्तदी॑महे॒ त्वे आ भू॑षन्ति वे॒धस॑: । तव॒ श्रवां॑स्युप॒मान्यु॒क्थ्या॑ सु॒तेष्वि॑न्द्र गिर्वणः ॥
स्वर सहित पद पाठमत्स्व॑ । सु॒ऽशि॒प्र॒ । ह॒रि॒ऽवः॒ । तत् । ई॒म॒हे॒ । त्वे इति॑ । आ । भू॒ष॒न्ति॒ । वे॒धसः॑ । तव॑ । श्रवां॑सि । उ॒प॒ऽमानि॑ । उ॒क्थ्या॑ । सु॒तेषु॑ । इ॒न्द्र॒ । गि॒र्व॒णः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
मत्स्वा सुशिप्र हरिवस्तदीमहे त्वे आ भूषन्ति वेधस: । तव श्रवांस्युपमान्युक्थ्या सुतेष्विन्द्र गिर्वणः ॥
स्वर रहित पद पाठमत्स्व । सुऽशिप्र । हरिऽवः । तत् । ईमहे । त्वे इति । आ । भूषन्ति । वेधसः । तव । श्रवांसि । उपऽमानि । उक्थ्या । सुतेषु । इन्द्र । गिर्वणः ॥ ८.९९.२
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 99; मन्त्र » 2
अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 3; मन्त्र » 2
अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 3; मन्त्र » 2
विषय - राजा प्रजा के व्यवहारों के साथ परमेश्वर के गुणों का वर्णन।
भावार्थ -
हे ( हरिवः ) मनुष्यों के स्वामिन् ! ( त्वे ) तेरे अधीन, तेरे आश्रय ( वेधसः आ भूषन्ति ) विद्वान् कर्त्ता जन सब ओर से आकर रहते हैं, (तत् ईमहे) इसी से हम भी तेरी याचना करते हैं। हे (सुशिप्र) सुमुख ! हे सोम्य ! तू ( मत्स्व ) आनन्द लाभ कर और सबको सुखी कर। हे ( गिर्वणः ) वाणियों से स्तवन करने योग्य ! ( सुतेषु ) उत्पन्न पदार्थों और ऐश्वर्यों में ( तब ) तेरे ( उक्थ्या उपमानि) प्रशंसनीय, उपमा योग्य, ( श्रवांसि ) यश और श्रवणयोग्य ज्ञान और कर्म हैं।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - नृमेध ऋषि:॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१ आर्ची स्वराड् बृहती॥ २ बृहती। ३, ७ निचृद् बृहती। ५ पादनिचृद बृहती। ४, ६, ८ पंक्तिः॥ अष्टर्चं सूक्तम्॥
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