ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 99/ मन्त्र 3
श्राय॑न्त इव॒ सूर्यं॒ विश्वेदिन्द्र॑स्य भक्षत । वसू॑नि जा॒ते जन॑मान॒ ओज॑सा॒ प्रति॑ भा॒गं न दी॑धिम ॥
स्वर सहित पद पाठश्राय॑न्तःऽइव । सूर्य॑म् । विश्वा॑ । इत् । इन्द्र॑स्य । भ॒क्ष॒त॒ । वसू॑नि । जा॒ते । जन॑माने । ओज॑सा । प्रति॑ । भा॒गम् । न । दी॒धि॒म॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
श्रायन्त इव सूर्यं विश्वेदिन्द्रस्य भक्षत । वसूनि जाते जनमान ओजसा प्रति भागं न दीधिम ॥
स्वर रहित पद पाठश्रायन्तःऽइव । सूर्यम् । विश्वा । इत् । इन्द्रस्य । भक्षत । वसूनि । जाते । जनमाने । ओजसा । प्रति । भागम् । न । दीधिम ॥ ८.९९.३
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 99; मन्त्र » 3
अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 3; मन्त्र » 3
अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 3; मन्त्र » 3
विषय - राजा प्रजा के व्यवहारों के साथ परमेश्वर के गुणों का वर्णन।
भावार्थ -
हे प्रजास्थ जनो ! ( श्रायन्तः ) आश्रय लेते हुए आप लोग आश्रित जनों के समान ही ( सूर्यम् ) सूर्य के समान तेजस्वी, (इन्द्रस्य) ऐश्वर्यवान् प्रभु के ( विश्वा वसूनि ) सब प्रकार के ऐश्वर्यों को ( भक्षत ) सेवन करो, वा परस्पर विभक्त कर लिया करो। और ( जाते ) उत्पन्न और ( जनमाने ) आगे उत्पन्न होने वाले ऐश्वर्य में भी हम लोग ( ओजसा ) अपने बल पराक्रम के द्वारा ( भागं ) अपने प्राप्य अंश को (प्रति दीधिम ) प्रत्येक व्यक्ति अपना २ ग्रहण करें।
टिप्पणी -
मा गृधः कस्य स्विद्धनम् । यजु० अ० ४०॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - नृमेध ऋषि:॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१ आर्ची स्वराड् बृहती॥ २ बृहती। ३, ७ निचृद् बृहती। ५ पादनिचृद बृहती। ४, ६, ८ पंक्तिः॥ अष्टर्चं सूक्तम्॥
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