ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 103/ मन्त्र 3
परि॒ कोशं॑ मधु॒श्चुत॑म॒व्यये॒ वारे॑ अर्षति । अ॒भि वाणी॒ॠषी॑णां स॒प्त नू॑षत ॥
स्वर सहित पद पाठपरि॑ । कोश॑म् । म॒धु॒ऽश्चुत॑म् । अ॒व्यये॑ । वारे॑ । अ॒र्ष॒ति॒ । अ॒भि । वाणीः॑ । ऋषी॑णाम् । स॒प्त । नू॒ष॒त॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
परि कोशं मधुश्चुतमव्यये वारे अर्षति । अभि वाणीॠषीणां सप्त नूषत ॥
स्वर रहित पद पाठपरि । कोशम् । मधुऽश्चुतम् । अव्यये । वारे । अर्षति । अभि । वाणीः । ऋषीणाम् । सप्त । नूषत ॥ ९.१०३.३
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 103; मन्त्र » 3
अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 6; मन्त्र » 3
अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 6; मन्त्र » 3
विषय - स्तुत्य अन्तर्यामी प्रभु।
भावार्थ -
(अव्यये वारे) अविनाशी, सर्वरक्षक परम वरणीय, रूप में वह प्रभु (मधुश्चुतम् कोशम् परि) मधु, परमानन्द वा ज्ञान को प्रदान करने वाले, आनन्दमय कोश वा तेजोमय हिरण्यगर्भ को वह (परि अर्षति) व्यापता है। और (ऋषीणां वाणीः सप्त अधि नूषत) साक्षात् करने वाले ऋषियों की सातों छन्दोमयी वाणियां उसकी साक्षात् स्तुति करती हैं।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - द्वित आप्त्य ऋषिः॥ पवमानः सोमो देवता॥ छन्दः- १ ३ उष्णिक्। २, ५ निचृदुष्णिक्। ४ पादनिचृदुष्णिक्। ६ विराडुष्णिक्॥ षडृचं सूक्तम्॥
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