ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 103/ मन्त्र 2
परि॒ वारा॑ण्य॒व्यया॒ गोभि॑रञ्जा॒नो अ॑र्षति । त्री ष॒धस्था॑ पुना॒नः कृ॑णुते॒ हरि॑: ॥
स्वर सहित पद पाठपरि॑ । वारा॑णि । अ॒व्यया॑ । गोभिः॑ । अ॒ञ्जा॒नः । अ॒र्ष॒ति॒ । त्री । स॒धऽस्था॑ । पु॒ना॒नः । कृ॒णु॒ते॒ । हरिः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
परि वाराण्यव्यया गोभिरञ्जानो अर्षति । त्री षधस्था पुनानः कृणुते हरि: ॥
स्वर रहित पद पाठपरि । वाराणि । अव्यया । गोभिः । अञ्जानः । अर्षति । त्री । सधऽस्था । पुनानः । कृणुते । हरिः ॥ ९.१०३.२
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 103; मन्त्र » 2
अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 6; मन्त्र » 2
अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 6; मन्त्र » 2
विषय - व्यापक प्रभु।
भावार्थ -
वह प्रभु (त्रीणि) तीनों (अव्यया) अविनाशी (वाराणि) जीवों की रक्षा करने वाले लोकों को सूर्य के तुल्य (गोभिः अंजानः) किरणों से, वाणियों से वा इन्द्रियों वा सूर्यादि लोकों द्वारा प्रकाशित करता हुआ (हरिः) तीनों तापों का हरण करने वाला, तीनों लोकों का प्रभु (पुनानः) व्यापता हुआ (त्री सधस्था कृणुते) तीनों लोकों को रचता और (अर्षति) तीनों में व्यापता है।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - द्वित आप्त्य ऋषिः॥ पवमानः सोमो देवता॥ छन्दः- १ ३ उष्णिक्। २, ५ निचृदुष्णिक्। ४ पादनिचृदुष्णिक्। ६ विराडुष्णिक्॥ षडृचं सूक्तम्॥
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