ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 103/ मन्त्र 1
प्र पु॑ना॒नाय॑ वे॒धसे॒ सोमा॑य॒ वच॒ उद्य॑तम् । भृ॒तिं न भ॑रा म॒तिभि॒र्जुजो॑षते ॥
स्वर सहित पद पाठप्र । पु॒ना॒नाय॑ । वे॒धसे॑ । सोमा॑य । वचः॑ । उत्ऽय॑तम् । भृ॒तिम् । न । भ॒र॒ । म॒तिऽभिः॑ । जुजो॑षते ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र पुनानाय वेधसे सोमाय वच उद्यतम् । भृतिं न भरा मतिभिर्जुजोषते ॥
स्वर रहित पद पाठप्र । पुनानाय । वेधसे । सोमाय । वचः । उत्ऽयतम् । भृतिम् । न । भर । मतिऽभिः । जुजोषते ॥ ९.१०३.१
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 103; मन्त्र » 1
अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 6; मन्त्र » 1
अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 6; मन्त्र » 1
विषय - पवमान सोम। सेवकवत् नियमपूर्वक देव-उपासना करने का उपदेश।
भावार्थ -
(मतिभिः) स्तुतियों से (जुजोषते) प्रसन्न करने वा होने वाले, वा (मतिभिः जुजोषते) विद्वान् पुरुषों द्वारा प्रेमपूर्वक सेवन किये जाते हुए, (पुनानाय) निरन्तर अभ्यास द्वारा स्वच्छ रूप में साक्षात् होने वाले, (वेधसे) जगत् के विधाता (सोमाय) सर्वेश्वर, सर्वपालक प्रभु के लिये (उद्यतम् वचः) उत्तम रीति से सुसंयत, सुगठित स्तुति वाणी का (भृतिं न भर) वेतन के तुल्य प्रदान कर। अर्थात् प्रभु की स्तुति प्रार्थना नित्य नियम से बंधे रूप से करनी चाहिये।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - द्वित आप्त्य ऋषिः॥ पवमानः सोमो देवता॥ छन्दः- १ ३ उष्णिक्। २, ५ निचृदुष्णिक्। ४ पादनिचृदुष्णिक्। ६ विराडुष्णिक्॥ षडृचं सूक्तम्॥
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