ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 105/ मन्त्र 5
स नो॑ हरीणां पत॒ इन्दो॑ दे॒वप्स॑रस्तमः । सखे॑व॒ सख्ये॒ नर्यो॑ रु॒चे भ॑व ॥
स्वर सहित पद पाठसः । नः॒ । ह॒री॒णा॒म् । प॒ते॒ । इन्दो॒ इति॑ । दे॒वप्स॑रःऽतमः । सखा॑ऽइव । सख्ये॑ । नर्यः॑ । रु॒चे । भ॒व॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
स नो हरीणां पत इन्दो देवप्सरस्तमः । सखेव सख्ये नर्यो रुचे भव ॥
स्वर रहित पद पाठसः । नः । हरीणाम् । पते । इन्दो इति । देवप्सरःऽतमः । सखाऽइव । सख्ये । नर्यः । रुचे । भव ॥ ९.१०५.५
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 105; मन्त्र » 5
अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 8; मन्त्र » 5
अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 8; मन्त्र » 5
विषय - सर्वमित्र दानशील दयालु प्रभु।
भावार्थ -
हे (हरीणां पते) समस्त मनुष्यों के पालक ! हे (इन्दो) तेजस्विन् ! प्रजाजन के प्रति दयालो ! (देवप्सरस्तमः) दानशील मेघ और देदीप्यमान सूर्य के समान सर्वोपरि श्रेष्ठ रूप वाला तू (सः) वह (नः) हमारे प्रति (सख्ये सखा इव) मित्र के लिये मित्र के तुल्य सब मनुष्यों का हितकारी और (रुचे भव) हमारी दीप्ति, कांति और इच्छा पूर्ति के लिये हो।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ऋषी पर्वतनारदौ॥ पवमानः सोमो देवता॥ छन्दः- १, २ उष्णिक्। ३, ४, ६ निचृदुष्णिक्। ५ विराडुष्णिक्॥ षडृचं सूक्तम्॥
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