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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 105 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 105/ मन्त्र 6
    ऋषिः - पर्वतनारदौ देवता - पवमानः सोमः छन्दः - निचृदुष्णिक् स्वरः - ऋषभः

    सने॑मि॒ त्वम॒स्मदाँ अदे॑वं॒ कं चि॑द॒त्रिण॑म् । सा॒ह्वाँ इ॑न्दो॒ परि॒ बाधो॒ अप॑ द्व॒युम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सने॑मि । त्वम् । अ॒स्मत् । आ । अदे॑वम् । कम् । चि॒त् । अ॒त्रिण॑म् । सा॒ह्वान् । इ॒न्दो॒ इति॑ । परि॑ । बाधः॑ । अप॑ । द्व॒युम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सनेमि त्वमस्मदाँ अदेवं कं चिदत्रिणम् । साह्वाँ इन्दो परि बाधो अप द्वयुम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सनेमि । त्वम् । अस्मत् । आ । अदेवम् । कम् । चित् । अत्रिणम् । साह्वान् । इन्दो इति । परि । बाधः । अप । द्वयुम् ॥ ९.१०५.६

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 105; मन्त्र » 6
    अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 8; मन्त्र » 6

    भावार्थ -
    (त्वम् अस्मत् सनेमि) तू हमारा सदा से (सखा इव) मित्र के तुल्य है। तू हम से सदा (अदेवं कंचित् अत्रिणम्) अदानशील, शत्रुवत् हमारे धन को खाजाने वाला चाहे वह कोई हो, उसको भी (अस्मत्) हमसे दूर कर और उसे (साह्वान्) पराजित करने वाला तू ही है। हे (इन्दो) तेजस्विन् ! ऐश्वर्यवन् ! तू (द्वयुम्) दो भाव रखने वाले को (परिबाधः, अप बाधः) पीड़ित कर और दूर कर। चित्त में बैठे काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर, चिन्ता, शोक आदि अनेक शत्रुगण वा रोगादि मनुष्य को खाते रहते हैं। प्रभु उनको प्रजापालक, राजा के तुल्य दूर करे। यह सूक्त पूर्व सूक्त का अनुवादमात्र है। इत्यष्टमो वर्गः॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ऋषी पर्वतनारदौ॥ पवमानः सोमो देवता॥ छन्दः- १, २ उष्णिक्। ३, ४, ६ निचृदुष्णिक्। ५ विराडुष्णिक्॥ षडृचं सूक्तम्॥

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