ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 32/ मन्त्र 4
उ॒भे सो॑माव॒चाक॑शन्मृ॒गो न त॒क्तो अ॑र्षसि । सीद॑न्नृ॒तस्य॒ योनि॒मा ॥
स्वर सहित पद पाठउ॒भे इति॑ । सो॒म॒ । अ॒व॒ऽचाक॑शत् । मृ॒गः । न । त॒क्तः । अ॒र्ष॒सि॒ । सीद॑न् । ऋ॒तस्य॑ । योनि॑म् । आ ॥
स्वर रहित मन्त्र
उभे सोमावचाकशन्मृगो न तक्तो अर्षसि । सीदन्नृतस्य योनिमा ॥
स्वर रहित पद पाठउभे इति । सोम । अवऽचाकशत् । मृगः । न । तक्तः । अर्षसि । सीदन् । ऋतस्य । योनिम् । आ ॥ ९.३२.४
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 32; मन्त्र » 4
अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 22; मन्त्र » 4
अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 22; मन्त्र » 4
विषय - सिंहवत् ज्ञानेच्छुक का कर्त्तव्य । सिंहवत् धर्माध्यक्ष का कर्त्तव्य।
भावार्थ -
हे (सोम) विद्वन् ! ज्ञानेच्छुक ! तू (ऋतस्य योनिम् आ सीदन्) ज्ञान के आश्रय आचार्य को प्राप्त होता हुआ, (मृगः न तक्तः) सिंह के समान तेजस्वी वा शुद्ध चरित्र होकर (उभे अव चाकशत्) धर्म, अधर्म, इह और पर, लोकों को देखता हुआ (अर्षसि) आगे बढ़। (२) इसी प्रकार शासक धर्माध्यक्ष के पद पर विराज कर, सिंहवत् अभय होकर, सत्यानृत का विवेक करता हुआ न्याय करे।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - श्यावाश्व ऋषिः। पवमानः सोमो देवता॥ छन्दः-१, २ निचृद् गायत्री। ३-६ गायत्री॥ षडृचं सूक्तम्॥
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