ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 36/ मन्त्र 2
स वह्नि॑: सोम॒ जागृ॑वि॒: पव॑स्व देव॒वीरति॑ । अ॒भि कोशं॑ मधु॒श्चुत॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठसः । वह्निः॑ । सो॒म॒ । जागृ॑विः । पव॑स्व । दे॒व॒ऽवीः । अति॑ । अ॒भि । कोश॑म् । म॒धु॒ऽश्चुत॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
स वह्नि: सोम जागृवि: पवस्व देववीरति । अभि कोशं मधुश्चुतम् ॥
स्वर रहित पद पाठसः । वह्निः । सोम । जागृविः । पवस्व । देवऽवीः । अति । अभि । कोशम् । मधुऽश्चुतम् ॥ ९.३६.२
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 36; मन्त्र » 2
अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 26; मन्त्र » 2
अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 26; मन्त्र » 2
विषय - शत्रुपीड़क सेनापति का कण्टक शोधन कार्य ।
भावार्थ -
(सः) वह तु (वह्निः) कार्य वहन करने में समर्थ, (जागृविः) सदा कार्य में सावधान, (देव-वीः) सूर्यवत् कान्तिमान् सब विद्वानों का प्रिय होकर हे (सोम) शास्तः ! (सः) वह तू (मधुश्चुतम् कोशं) जलप्रद मेघ के समान, सब को अन्न देने वाले कोश, खज़ाने रूप इस राष्ट्र को (अति अभि पवस्व) सब से बढ़कर प्राप्त कर।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - प्रभूवसुर्ऋषिः॥ पवमानः सोमो देवता॥ छन्द:- १ पादनिचृद्र गायत्री। २, ६ गायत्री। ३-५ निचृद गायत्री॥
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