ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 48/ मन्त्र 1
तं त्वा॑ नृ॒म्णानि॒ बिभ्र॑तं स॒धस्थे॑षु म॒हो दि॒वः । चारुं॑ सुकृ॒त्यये॑महे ॥
स्वर सहित पद पाठतम् । त्वा॒ । नृ॒म्णानि॑ । विभ्र॑तम् । स॒धऽस्थे॑षु । म॒हः । दि॒वः । चारु॑म् । सु॒ऽकृ॒त्यया॑ । ई॒म॒हे॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
तं त्वा नृम्णानि बिभ्रतं सधस्थेषु महो दिवः । चारुं सुकृत्ययेमहे ॥
स्वर रहित पद पाठतम् । त्वा । नृम्णानि । विभ्रतम् । सधऽस्थेषु । महः । दिवः । चारुम् । सुऽकृत्यया । ईमहे ॥ ९.४८.१
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 48; मन्त्र » 1
अष्टक » 7; अध्याय » 1; वर्ग » 5; मन्त्र » 1
अष्टक » 7; अध्याय » 1; वर्ग » 5; मन्त्र » 1
विषय - पवमान सोम। सूर्य के तुल्य सर्वोपरि शासक से प्रजा का धनों के निमित्त प्रार्थना करना। विजेता शासक से याचना।
भावार्थ -
(तं) उस (त्वा) तुझ को (महः दिवः सधस्थेषु) बड़े भारी नाना स्थानों में सूर्य के समान विशाल (दिवः) तेजस्वी, मूर्धन्य राजसभा के (सधस्थेषु) एकत्र स्थिति योग्य अधिवेशनों में (नृम्णानि) धनों वा नेता जनों से मनन करने योग्य कार्यों को (विभ्रतं) धारण करने वाले (चारुम् त्वा) कल्याणकारी तुझ को हम (सुकृत्यया) उत्तम कृत्यों द्वारा (नृम्णानि ईमहे) नाना धनों का याचना, प्रार्थना करते हैं।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - कविर्भार्गव ऋषिः। पवमानः सोमो देवता॥ छन्दः- १, ५ गायत्री। २-४ निचृद् गायत्री॥ पञ्चर्चं सूक्तम्॥
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