ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 5/ मन्त्र 4
ऋषिः - असितः काश्यपो देवलो वा
देवता - आप्रियः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
ब॒र्हिः प्रा॒चीन॒मोज॑सा॒ पव॑मानः स्तृ॒णन्हरि॑: । दे॒वेषु॑ दे॒व ई॑यते ॥
स्वर सहित पद पाठब॒र्हिः । प्रा॒चीन॑म् । ओज॑सा । पव॑मानः । स्तृ॒णन् । हरिः॑ । दे॒वेषु॑ । दे॒वः । ई॒य॒ते॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
बर्हिः प्राचीनमोजसा पवमानः स्तृणन्हरि: । देवेषु देव ईयते ॥
स्वर रहित पद पाठबर्हिः । प्राचीनम् । ओजसा । पवमानः । स्तृणन् । हरिः । देवेषु । देवः । ईयते ॥ ९.५.४
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 5; मन्त्र » 4
अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 24; मन्त्र » 4
अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 24; मन्त्र » 4
विषय - कुशाओं के तुल्य शत्रु के उच्छेदन का कार्य ।
भावार्थ -
(देवः) तेजस्वी, दानशील, सूर्यवत् राजा (देवेषु) विद्वानों और तेजस्वी लोगों के बीच या उनके अधीन (ओजसा) बल पराक्रम से (प्राचीनम्) अपने आगे आये (बर्हिः स्तृणन्) उच्छेद्य शत्रु को कुशा के समान काटता और भूमि पर बिछाता हुआ, इस प्रकार (पवमानः) राष्ट्र का कण्टक शोधन और अपना अभिषेक करता हुआ, (हरिः) सेना को साथ लिये (ईयते) आगे बढ़े। अथवा—(प्राचीनम्) आगे विनय-भाव से स्थित (बर्हिः) प्रजा जन को विनय से झुकाता हुआ, पराक्रम के कारण अभिषिक्त होकर, अधिकार-दाताओं के बीच उपस्थित होता है।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - असितः काश्यपो देवता वा ऋषिः। आप्रियो देवता ॥ छन्द:-- १, २, ४-६ गायत्री। ३, ७ निचृद गायत्री। ८ निचृदनुष्टुप्। ९, १० अनुष्टुप्। ११ विराडनुष्टुप्॥ एकादशर्चं सूक्तम् ॥
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